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"आग जलती रहे / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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फूल-पत्ती, फल छुआ
 
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जो मुझे छुने चली
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हर उस हवा का आँचल छुआ
 
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... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता
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आग के संपर्क से
 
आग के संपर्क से

14:52, 3 मई 2007 का अवतरण

लेखक: दुष्यंत कुमार

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एक तीखी आँच ने

इस जन्म का हर पल छुआ,

आता हुआ दिन छुआ

हाथों से गुजरता कल छुआ

हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,

फूल-पत्ती, फल छुआ

जो मुझे छूने चली

हर उस हवा का आँचल छुआ

... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता

आग के संपर्क से

दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में

मैं उबलता रहा पानी-सा

परे हर तर्क से

एक चौथाई उमर

यों खौलते बीती बिना अवकाश

सुख कहाँ

यों भाप बन-बन कर चुका,

रीता, भटकता

छानता आकाश

आह! कैसा कठिन

... कैसा पोच मेरा भाग!

आग चारों और मेरे

आग केवल भाग!

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,

पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,

वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप

ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे

जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।