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08:51, 7 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

वह मेरी कविताओं का चेहरा है ।

गाँव की पगडंडियों

शहर के फुटपाथों की

धूल धांगता हुआ

भीड़ में मुक्ति का सपना है ।


अनुभव की कद-काठी में

भविष्य का ज्वलन्त वाक्य ।


हज़ारों टन आकाश का बोझ

बौना नहीं बना सका जिसे

वह टूटता है

अटूटता के क्रम में

ऊसर में

क्रान्ति-बीज़ फूटता है

आवाज़ों और इरादों के

असंख्य कल्लों में ।


भादों की वर्षा

जेठ के भप्पारों

और पूस के सिसकारों को

दृढ़ता से जज़्ब करता हुआ

वर्तमान के अन्धकूप में

उजाले का उमगाव


यह विपन्न आशाओं का अंकुरण है ।