भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ऊँचाईयाँ / केशव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव }} <poem> ...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:49, 7 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
तुम
इस पर चढ़ सकते हो बंधु!
अब तक जो तुम्हें
दिखाई देता है पहाड़
तुम इस पर
चढ़ सकते हो
ऊंचाईयाँ हमेशा
अपराजेय नहीं होतीं
बस इतनी कि
वे पहले भरती हैं भय
और छोटा करने की कोशिश में
लगाती है अट्टहास
इस खोखले अट्टहास को
ऊंचाई से मत मापो बन्धु!
तुम्हारे अन्दर लिपटी पड़ी हैं
कितनी ऊँचाईंया
उन्हें खोलो
फिर देखना
हर पहाड़ झुककर
चलने लगेगा
तुम्हारे साथ ।