भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आहटें / रेखा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा |संग्रह=|संग्रह=चिन्दी-चिन्दी सुख / रेखा }} <...)
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
मामा-चाचा
 
मामा-चाचा
 
सभी ने डोली उतार
 
सभी ने डोली उतार
विदा दी थी जहां
+
विदा दी थी जहाँ
 
उसी पड़ाव पर उतारना
 
उसी पड़ाव पर उतारना
 
गाड़ी वाले भइया
 
गाड़ी वाले भइया
 +
 
बीस साल बीते
 
बीस साल बीते
लौटी हूं पीहर
+
लौटी हूँ पीहर
 
तब तो सड़क एक ही थी
 
तब तो सड़क एक ही थी
 
पूरब में देस था
 
पूरब में देस था
पंक्ति 20: पंक्ति 21:
 
कैसा अंधेर है भाई
 
कैसा अंधेर है भाई
 
हर पड़ाव बन गया चौराहा
 
हर पड़ाव बन गया चौराहा
भूलने लगी हूं मैं
+
भूलने लगी हूँ मैं
 
अपने ही घर की दिशा
 
अपने ही घर की दिशा
 +
 
कोई गले लगकर नहीं पूछता
 
कोई गले लगकर नहीं पूछता
 
राज़ी तो हो बेटी
 
राज़ी तो हो बेटी
 
जवांई बाबू नहीं आए?
 
जवांई बाबू नहीं आए?
कंधे से कंधा भिड़ाए
+
कँधे से कँधा भिड़ाए
 
भाग रही है भीड़
 
भाग रही है भीड़
 
सभी चेहरे
 
सभी चेहरे
पंक्ति 32: पंक्ति 34:
 
या बिलों में घुस गये
 
या बिलों में घुस गये
 
वे लोग
 
वे लोग
 +
 
ये नन्हें बच्चे
 
ये नन्हें बच्चे
 
जिनसे पूछा है मैंने
 
जिनसे पूछा है मैंने
पंक्ति 41: पंक्ति 44:
 
कहीं से उगाहने
 
कहीं से उगाहने
 
अनाथालय का चंदा
 
अनाथालय का चंदा
 +
 
अरे बेटा!
 
अरे बेटा!
 
दादी को खबर करो
 
दादी को खबर करो
 
गौरी जीजी आई हैं
 
गौरी जीजी आई हैं
 +
 
चली आओ बेटी
 
चली आओ बेटी
 
आँखों में उतरा है
 
आँखों में उतरा है
 
जब से मोतिया बिंद
 
जब से मोतिया बिंद
 
खो गई है पहचान
 
खो गई है पहचान
बस आहट से पहचान लेती हूं
+
बस आहट से पहचान लेती हूँ
मैं भी तो लौटी हूं, अम्मा
+
मैं भी तो लौटी हूँ अम्मा
 
अतीत की एक आहट-सी
 
अतीत की एक आहट-सी
आहटें ढूंढ़ रही हूं
+
आहटें ढूँढ़ रही हूँ
वैसे तो आंखों में
+
वैसे तो आँखों में
 
नहीं बसी कभी कोई पहचान
 
नहीं बसी कभी कोई पहचान
 
 
 
</poem>
 
</poem>

00:44, 8 फ़रवरी 2009 का अवतरण

पिता-भाई
मामा-चाचा
सभी ने डोली उतार
विदा दी थी जहाँ
उसी पड़ाव पर उतारना
गाड़ी वाले भइया

बीस साल बीते
लौटी हूँ पीहर
तब तो सड़क एक ही थी
पूरब में देस था
पश्चिम में परदेस
कैसा अंधेर है भाई
हर पड़ाव बन गया चौराहा
भूलने लगी हूँ मैं
अपने ही घर की दिशा

कोई गले लगकर नहीं पूछता
राज़ी तो हो बेटी
जवांई बाबू नहीं आए?
कँधे से कँधा भिड़ाए
भाग रही है भीड़
सभी चेहरे
नये और जवान
काया पलट हो गई क्या सबकी
या बिलों में घुस गये
वे लोग

ये नन्हें बच्चे
जिनसे पूछा है मैंने
बड़ी चौकी का पता
क्यों घूरते हैं ऐसे
जैसे हूँ नहीं इनमें से
किसी के बाप की बुआ
कोई बहिन जी आई हैं
कहीं से उगाहने
अनाथालय का चंदा

अरे बेटा!
दादी को खबर करो
गौरी जीजी आई हैं

चली आओ बेटी
आँखों में उतरा है
जब से मोतिया बिंद
खो गई है पहचान
बस आहट से पहचान लेती हूँ
मैं भी तो लौटी हूँ अम्मा
अतीत की एक आहट-सी
आहटें ढूँढ़ रही हूँ
वैसे तो आँखों में
नहीं बसी कभी कोई पहचान