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+ | यह ग़ज़ल उस्ताद 'सौदा' ने अपने ज़माने में पाये जाने वाले ना-शायरों(जो शायर नहीं हैं) के ऊपर व्यंग रूप में लिखी थी, आज हमारे समय में जाने कितने नाशायर हैं जिनपर यह बिल्कुल ख़री उतरती है। | ||
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22:59, 8 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
बाज़े1 ऐसे भी हैं नामाक़ूल है जिनका सुख़न
अपनी शोहरत होने को समझे हैं वो तदबीर जंग
पोचगोई2 से नहीं हटते ब-मैदाने-सुख़न3
करते हैं गोया वो जकड़कर पाँव में ज़ंजीर जंग
अबरू-ओ-मिश़गाँ4 के मजमूँ में करें जो उनके दख़्ल
करने ये उससे लगें नादाँ ब-तेग़ो-तीर जंग
मैं तो हैराँ हूँ अब तो इन नाशायिरों की वज़्अ5 पर
करते-फिरते हैं जो पढ़-पढ़ शेरे-बेतासीर6 जंग
एक उनमें से लगा 'सौदा' के आगे पढ़ने शे'र
वास्ते इतने कि ता कीजे ब-ईं-तज़वीर7 जंग
सुनके ये बोला: ख़ुदा के वास्ते रखिए मुआफ़
मैं तो शायर ग़रीब और आप हैं शमशीर जंग
शब्दार्थ:
1. कुछ एक 2. सतही काव्य रचना 3. काव्य के रण क्षेत्र में 4. भवों और पलकों 5. तौर-तरीक़ा 6. प्रभावहीन काव्य 7. झूठा बहाना बनाकर
इस ग़ज़ल के बारे में कुछ विशेष:
यह ग़ज़ल उस्ताद 'सौदा' ने अपने ज़माने में पाये जाने वाले ना-शायरों(जो शायर नहीं हैं) के ऊपर व्यंग रूप में लिखी थी, आज हमारे समय में जाने कितने नाशायर हैं जिनपर यह बिल्कुल ख़री उतरती है।