"मजबूर / अमृता प्रीतम" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमृता प्रीतम |संग्रह= }} <poem> मेरी माँ की कोख मजबूर ...) |
छो |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
मेरी माँ की कोख मजबूर थी... | मेरी माँ की कोख मजबूर थी... | ||
मैं भी तो एक इन्सान हूँ | मैं भी तो एक इन्सान हूँ | ||
− | + | आज़ादियों की टक्कर में | |
उस चोट का निशान हूँ | उस चोट का निशान हूँ | ||
उस हादसे की लकीर हूँ | उस हादसे की लकीर हूँ |
00:54, 9 फ़रवरी 2009 का अवतरण
मेरी माँ की कोख मजबूर थी...
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आज़ादियों की टक्कर में
उस चोट का निशान हूँ
उस हादसे की लकीर हूँ
जो मेरी माँ के माथे पर
लगनी ज़रूर थी
मेरी माँ की कोख मजबूर थी
मैं वह लानत हूँ
जो इन्सान पर पड़ रही है
मैं उस वक़्त की पैदाइश हूँ
जब तारे टूट रहे थे
जब सूरज बुझ गया था
जब चाँद की आँख बेनूर थी
मेरी माँ की कोख मजबूर थी
मैं एक ज़ख्म का निशान हूँ,
मैं माँ के जिस्म का दाग हूँ
मैं ज़ुल्म का वह बोझ हूँ
जो मेरी माँ उठाती रही
मेरी माँ को अपने पेट से
एक दुर्गन्ध-सी आती रही
कौन जाने कितना मुश्किल है
एक ज़ुल्म को अपने पेट में पालना
अंग-अंग को झुलसाना
और हड्डियों को जलाना
मैं उस वक़्त का फल हूँ –
जब आज़ादी के पेड़ पर
बौर पड़ रहा था
आज़ादी बहुत पास थी
बहुत दूर थी
मेरी माँ की कोख मजबूर थी...
(1947)