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"वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा / गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर

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वक्त को आते न जाते न गुजरते देखा
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वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
 
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
 
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
 
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है
 
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है
  
शायद आया था वो ख्वाब से दबे पांव ही
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शायद आया था वो ख़्वाब  से दबे पांव ही
और जब आया ख्यालो को एहसास न था
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और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
 
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
 
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक्त को पहचाना न था
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मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था
  
चंद तुतलाते हुए बोलो में आहट सुनी
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चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
 
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
 
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी सी रेशम की डली
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बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
 
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
 
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नही था कि वहां वक्त पड़ा है
+
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
 
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
 
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
 
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
 
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
 
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था
 
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था
  
चूडियाँ चढ़ती उतरती थी कलाई पे मुसलसल
+
चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
 
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
 
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक्त लिखा है
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मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है
  
वक्त को आते न जाते न गुजरते देखा
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वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
 
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
 
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
 
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी
 
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

09:17, 14 फ़रवरी 2009 का अवतरण

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी