"मेरा प्रकृति प्रेम / मुकुटधर पांडेय" के अवतरणों में अंतर
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हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर | हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर | ||
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होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर | होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर | ||
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सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं | सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं | ||
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उनके आगे तुच्छ परम ने मुझे सभी हैं । | उनके आगे तुच्छ परम ने मुझे सभी हैं । | ||
− | + | छोटे, छोटे झरने जो बहते सुखदाई | |
− | + | जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई | |
− | छोटे, छोटे झरने जो बहते | + | |
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पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित | पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित | ||
− | + | बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित। | |
− | बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं | + | |
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लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण | लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण | ||
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शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण | शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण | ||
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ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा | ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा | ||
− | + | और वस्तुओं से न कभी होता सुख वैसा। | |
− | और वस्तुओं से न कभी होता सुख | + | |
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छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर | छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर | ||
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बड़े-बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर | बड़े-बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर | ||
− | + | भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी | |
− | भाँति-भाँति की लता | + | ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी। |
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− | ये सब मुझको सदा हृदय से लगती | + | |
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इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है | इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है | ||
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सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है | सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है | ||
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पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर | पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर | ||
− | + | होता हूँ मैं सुखी बड़ा स्वच्छंद विचरकर। | |
− | होता हूँ मैं सुखी बड़ा स्वच्छंद | + | |
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नाले नदी समुद्र तथा बन बाग घनेरे | नाले नदी समुद्र तथा बन बाग घनेरे | ||
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जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँदिशि घेरे | जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँदिशि घेरे | ||
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तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं | तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं | ||
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खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं । | खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं । | ||
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वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है | वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है | ||
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कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है | कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है | ||
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बौर अम्ब कदम्ब सरस सौरभ फैलाते | बौर अम्ब कदम्ब सरस सौरभ फैलाते | ||
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गुनगुन करते भ्रमर वृंद उन पर मंडराते । | गुनगुन करते भ्रमर वृंद उन पर मंडराते । | ||
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इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता | इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता | ||
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बारबार अवलोकन कर भी नहीं अघाता | बारबार अवलोकन कर भी नहीं अघाता | ||
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देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर | देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर | ||
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यही विनय मैं करता तुझसे हे करुणाकर । | यही विनय मैं करता तुझसे हे करुणाकर । | ||
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00:07, 16 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर
होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर
सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं
उनके आगे तुच्छ परम ने मुझे सभी हैं ।
छोटे, छोटे झरने जो बहते सुखदाई
जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई
पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित
बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित।
लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण
शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण
ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा
और वस्तुओं से न कभी होता सुख वैसा।
छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर
बड़े-बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर
भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी
ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी।
इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है
सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है
पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर
होता हूँ मैं सुखी बड़ा स्वच्छंद विचरकर।
नाले नदी समुद्र तथा बन बाग घनेरे
जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँदिशि घेरे
तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं
खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं ।
वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है
कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है
बौर अम्ब कदम्ब सरस सौरभ फैलाते
गुनगुन करते भ्रमर वृंद उन पर मंडराते ।
इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता
बारबार अवलोकन कर भी नहीं अघाता
देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर
यही विनय मैं करता तुझसे हे करुणाकर ।