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"हास्य-रस -तीन / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर

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पुरानी रोशनी में नई में फ़र्क़ है इतना
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पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
 
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता
 
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दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गये
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हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिये
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नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
 
नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमए-ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है
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शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है
  
  

19:51, 20 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण


पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता


दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए


मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"


नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है



बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.