भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अपने हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा / वसीम बरेलवी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
अपने हर हर लफ़्ज़् का ख़ुद आईना हो जाऊँगा | अपने हर हर लफ़्ज़् का ख़ुद आईना हो जाऊँगा | ||
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा | उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा | ||
− | |||
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं | तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं | ||
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा | मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा | ||
− | |||
मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र | मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र | ||
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा | रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा | ||
− | |||
सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अह्द—ए—वफ़ा | सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अह्द—ए—वफ़ा | ||
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?</poem> | इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?</poem> |
19:57, 23 फ़रवरी 2009 का अवतरण
अपने हर हर लफ़्ज़् का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा
मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा
सारी दुनिया की नज़र में है मेरा अह्द—ए—वफ़ा
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?