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"सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर
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14:54, 3 मार्च 2009 का अवतरण
सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या
चाहिए कटलेट यह कीमा क्या करूँ
लैथरिज की चाहिए रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा क्या करूँ
खींचते हैं हर तरफ़ तानें हरीफ़
फिर मैं अपने सुर को धीमा क्यों करूँ
डाक्टर से दोस्ती लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान बीमा क्या करूँ
चांद में आया नज़र ग़ारे-मोहीब
हाये अब ऎ माहे-सीमा क्या करूँ
शब्दार्थ :
शायक़= शौक़ीन, चाहने वाला;
करीमा= शेख़ सादी की एक क़िताब जिसमें ईश्वर का गुणगान किया गया है।;
हरीफ़=दुश्मन या विरोधी;
ग़ारे-मोहीब=गहरी गुफ़ा;
माहे-सीमा= चन्द्रमुखी