भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"नहीं देख पाऊंगा यह सच / रंजीत वर्मा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
यह मैंने जाना | यह मैंने जाना | ||
तुम्हारे जाने के बाद | तुम्हारे जाने के बाद | ||
+ | |||
तुम जहां नहीं होती | तुम जहां नहीं होती | ||
वहां छांह नहीं होती | वहां छांह नहीं होती | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 15: | ||
कोई आसरा नहीं होता | कोई आसरा नहीं होता | ||
हर आहट हो जाती है दूर | हर आहट हो जाती है दूर | ||
+ | |||
प्रेम की तड़प खत्म नहीं हुई हमारी | प्रेम की तड़प खत्म नहीं हुई हमारी | ||
इस उत्तर आधुनिक युग में भी | इस उत्तर आधुनिक युग में भी | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 25: | ||
तुम्हारी पलकें झुकेंगी | तुम्हारी पलकें झुकेंगी | ||
और छुपा लेंगी मुझे अंदर कहीं | और छुपा लेंगी मुझे अंदर कहीं | ||
+ | |||
बिखरे केश में ढंक जाता है तुम्हारा चेहरा | बिखरे केश में ढंक जाता है तुम्हारा चेहरा | ||
चांद और बादल का ऐसा | चांद और बादल का ऐसा | ||
पंक्ति 28: | पंक्ति 31: | ||
एक तुम्ही रच सकती हो | एक तुम्ही रच सकती हो | ||
एस धरती पर | एस धरती पर | ||
+ | |||
मुझे पता है | मुझे पता है | ||
मैं खत्म हो जाऊंगा एक दिन | मैं खत्म हो जाऊंगा एक दिन | ||
तब भी नहीं देख पाऊंगा यह सच। | तब भी नहीं देख पाऊंगा यह सच। | ||
</poem> | </poem> |
22:52, 21 मार्च 2009 के समय का अवतरण
हिन्दी शब्दों के अर्थ उपलब्ध हैं। शब्द पर डबल क्लिक करें। अन्य शब्दों पर कार्य जारी है।
दिल्ली की सड़कें कितनी वीरान है
यह मैंने जाना
तुम्हारे जाने के बाद
तुम जहां नहीं होती
वहां छांह नहीं होती
और उफ
यह धूप होती है कितनी तेज
कोई आसरा नहीं होता
हर आहट हो जाती है दूर
प्रेम की तड़प खत्म नहीं हुई हमारी
इस उत्तर आधुनिक युग में भी
क्या मैं उम्मीद करूं कि
हवाओं के झोंकों से भरा दरख्त बनकर
तुम आओगी मेरे जीवन में
गिरोगी मेरी आत्मा पर
ठंडा बहता झरना बनकर
तुम्हारी पलकें झुकेंगी
और छुपा लेंगी मुझे अंदर कहीं
बिखरे केश में ढंक जाता है तुम्हारा चेहरा
चांद और बादल का ऐसा
अलौकिक दृश्य
एक तुम्ही रच सकती हो
एस धरती पर
मुझे पता है
मैं खत्म हो जाऊंगा एक दिन
तब भी नहीं देख पाऊंगा यह सच।