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कवि: [[माखनलाल चतुर्वेदी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी]] |संग्रह= ~*~*~*~*~*~*~*~ }}<poem>
चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
 
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
 
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
 
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
 
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
 
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
 
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
 
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
 
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
 
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।
 
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
 
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
 
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
 
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
 
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
 
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।
</poem>
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