"मुझे तो न्याय चाहिए / ऋषभ देव शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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आया था एक राजकुमार | आया था एक राजकुमार | ||
भरतवंशी| | भरतवंशी| | ||
− | छलछलाता हुआ | + | छलछलाता हुआ पौरुष। |
− | मूर्तिमान काम | + | मूर्तिमान काम देव। |
उछलती हुई मछलियाँ। | उछलती हुई मछलियाँ। | ||
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पहली ही दृष्टि में। | पहली ही दृष्टि में। | ||
− | बँध गए हम दोनों बाहुबंधन | + | बँध गए हम दोनों बाहुबंधन में। |
− | पिघल - पिघल गया मेरा | + | पिघल - पिघल गया मेरा रूप। |
जान पाई मैं पहली बार | जान पाई मैं पहली बार | ||
स्त्री होने का सुख। | स्त्री होने का सुख। | ||
− | मैं बाँस का वन थी - वह संगीत | + | मैं बाँस का वन थी - वह संगीत था। |
− | मैं पर्वत थी - वह गूँजती | + | मैं पर्वत थी - वह गूँजती आवाज़। |
देह की साधना थी, | देह की साधना थी, | ||
− | आत्मा का आनंद | + | आत्मा का आनंद था। |
उसे पाकर मैं धन्य थी, | उसे पाकर मैं धन्य थी, | ||
− | मुझे पाकर वह पूर्ण | + | मुझे पाकर वह पूर्ण था। |
'सुरत कलारी भई मतवारी | 'सुरत कलारी भई मतवारी | ||
पंक्ति 39: | पंक्ति 39: | ||
मैं मेघदूत की यक्षिणी नहीं थी, | मैं मेघदूत की यक्षिणी नहीं थी, | ||
− | नहीं थी मैं नैषध की | + | नहीं थी मैं नैषध की दमयंती। |
मैं शकुन्तला भी नहीं थी, | मैं शकुन्तला भी नहीं थी, | ||
− | राधा बनना भी मुझे स्वीकार न | + | राधा बनना भी मुझे स्वीकार न था। |
मैं चल पड़ी - | मैं चल पड़ी - | ||
बियाबान लाँघती, | बियाबान लाँघती, | ||
− | शिखर - शिखर | + | शिखर - शिखर फलाँगती। |
रास्ता रोका समन्दरों ने, | रास्ता रोका समन्दरों ने, | ||
ज्वालामुखियों ने, | ज्वालामुखियों ने, | ||
पंक्ति 69: | पंक्ति 69: | ||
पर | पर | ||
− | खुशी पर गिरी बिजली तड़प | + | खुशी पर गिरी बिजली तड़प कर। |
वह तो दूसरी दुनिया बसाए बैठा है!! | वह तो दूसरी दुनिया बसाए बैठा है!! | ||
पंक्ति 79: | पंक्ति 79: | ||
- सोचा था मैंने एक बार को | - सोचा था मैंने एक बार को | ||
− | नहीं, मैं रोई | + | नहीं, मैं रोई नहीं। |
मैंने थाम लिया उसका गरेबान; | मैंने थाम लिया उसका गरेबान; | ||
और घसीट ले आई | और घसीट ले आई | ||
− | चौराहे | + | चौराहे पर। |
नहीं, | नहीं, | ||
− | अब मुझे उसकी ज़रूरत | + | अब मुझे उसकी ज़रूरत नहीं। |
मुझे तो न्याय चाहिए! | मुझे तो न्याय चाहिए! | ||
न्याय चाहिए उस नई दुनिया को भी | न्याय चाहिए उस नई दुनिया को भी | ||
जो उसने बसाई है - मेरा घर उजाड़ कर!! | जो उसने बसाई है - मेरा घर उजाड़ कर!! | ||
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12:31, 17 अप्रैल 2009 का अवतरण
गन्धर्वों के देश
आया था एक राजकुमार
भरतवंशी|
छलछलाता हुआ पौरुष।
मूर्तिमान काम देव।
उछलती हुई मछलियाँ।
उफनता हुआ यौवन
आँखों में लहरा उठा समुद्र
पहली ही दृष्टि में।
बँध गए हम दोनों बाहुबंधन में।
पिघल - पिघल गया मेरा रूप।
जान पाई मैं पहली बार
स्त्री होने का सुख।
मैं बाँस का वन थी - वह संगीत था।
मैं पर्वत थी - वह गूँजती आवाज़।
देह की साधना थी,
आत्मा का आनंद था।
उसे पाकर मैं धन्य थी,
मुझे पाकर वह पूर्ण था।
'सुरत कलारी भई मतवारी
मदवा पी गई बिन तोले'।
खुमार उतरा
तो वह जा चुका था
वापस अपने देसों!
काले कोसों!
मैं अकेली रह गई।
मैं मेघदूत की यक्षिणी नहीं थी,
नहीं थी मैं नैषध की दमयंती।
मैं शकुन्तला भी नहीं थी,
राधा बनना भी मुझे स्वीकार न था।
मैं चल पड़ी -
बियाबान लाँघती,
शिखर - शिखर फलाँगती।
रास्ता रोका समन्दरों ने,
ज्वालामुखियों ने,
शेर बघेरों ने,
साँपों ने, सँपेरों ने।
मन तो घायल था ही,
तन भी तार - तार कर दिया
दुनिया ने।
मैं नहीं रुकी
मैं नहीं झुकी
मैं नहीं थमी
मैं नहीं डरी...
आ पहुँची
आग का दरिया तैर कर
काले कोसों!
उसके देसों!!
कितनी खुश थी मैं!
उससे मिलना जो था!!
पर
खुशी पर गिरी बिजली तड़प कर।
वह तो दूसरी दुनिया बसाए बैठा है!!
लौट जाऊँ मैं?
उसे नई दुनिया में खुश देखकर
खुश होती रहूँ?
रोती रहूँ??
उसकी खुशी में खुश रहूँ???
- सोचा था मैंने एक बार को
नहीं, मैं रोई नहीं।
मैंने थाम लिया उसका गरेबान;
और घसीट ले आई
चौराहे पर।
नहीं,
अब मुझे उसकी ज़रूरत नहीं।
मुझे तो न्याय चाहिए!
न्याय चाहिए उस नई दुनिया को भी
जो उसने बसाई है - मेरा घर उजाड़ कर!!