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'''शीर्षक: '''माँ का नाचयार दहलीज़ छू कर<br> '''रचनाकार:''' [[बोधिसत्वविजय वाते]]
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वहाँ कई स्त्रियाँ थींयार दहलीज़ छू कर ना जाया करो|जो नाच रही थीं, गाते हुएतुम कभी दोस्त बनकर भी आया करो|
वे खेत क्या ज़रूरी है सुख दुख में नाच रही थीं याही बात हो,आंगन में यह उन्हें भी नहीं पता थाएक मटमैले वितान के नीचे थाचल रहा यह नाच ।जब कभी फोन यूँ ही लगाया करो|
कोई पीली साड़ी पहने थीकोई धानीकोई गुलाबीबीते आवारा दिन याद करके कभी, कोई जोगन-सीसब नाचते हुए मदद कर रही थींएक-दूसरे कीथोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिएहट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो|
कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने वक्त कीरेत मुठ्ठी में रुकती नहीं,उसने बहुत सधे ढंग सेशुरू किया नाचनागाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके सेपुराना गीतमाँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भीजो नाच चुकी थीं वे भी अचम्भितमन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ ।इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो|
मटमैले वितान के नीचेइस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँपैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटीटूट चुके थे घुटने कई बारझुक चली थी कमरहमने गुमटी पर जैसे भँवर घूमता हैजैसे बवंडर नाचता है वैसेनाच रही कल चाय पी थी माँ ।"विजय" आज बहुत दिनों बाद उसेमिला था नाचने का मौकाऔर वह नाच रही थी बिना रुकेगा रही थी बहुत पुराना गीतगहरे सुरों में । अचानक ही हुआ माँ का गाना बन्दपर नाचना जारी रहावह इतनी गति में थी कि परबसघूमती जा रही थीफिर गाने की जगह उठा विलाप का स्वरऔर फैलता चला गया उसका वितान । वह नाचती रही बिलखते हुएधरती तुम भी आकर के इस छोर से उस छोर तकसमुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तकसब भरे से उसके नाच की धमक सेसब में समाया था उसका बिलखता हुआ गाना ।मज़मे लगाया करो|
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