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ब्रह्महत्या / ऋषभ देव शर्मा

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ब्रह्महत्या है
किसी विश्वास की हत्या
[इंद्र पर भी पाप वह भारी पडा़पड़ा]!
बहुत घायल है
धरा यह,
है विखण्डितविखंडित
वेश भी
परिवेश भी।
बिजलियाँ टूटीं कड़ककर,
सिंधु ने खाया पछाडा़पछाड़ा,
वृत्र की छाती फटी ;
फट गईं लहरें,
की नहीं कब-कब
उजास की हत्या?
 
 
एक काली छाँह
डसने को बढी़ बढ़ी - खोलकर जबडे़जबड़े,
फनफनाती
फुफकारती
कल्पतरु काँपा,
गिरे पत्ते झुलसकर,
फूल की हर पंखुडी़पंखुड़ी
कालिख बनी,
पाप के कड़वे, कसैले और काले
छिप गया
जाकर कमल की नाल में,
आप आने अपने ताप में तपता रहा;
आत्महत्या भी नहीं संभव रही।
हो न जाए फिर कहीं
अहसास की हत्या!
[इंद्र पर भी पाप यह भारी पडा़पड़ा] !
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