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"कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर
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ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को | ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को |
20:39, 2 मई 2009 का अवतरण
कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तकरार की
ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की
हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की
ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की
बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की
लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की
थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की
हाल-ए-अकबर देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की