भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिल गया रौनके हयात गई / जिगर मुरादाबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
  
 
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
 
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
 
 
ग़म गया सारी कायनात गई ।।   
 
ग़म गया सारी कायनात गई ।।   
  
  
 
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
 
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
 
 
लब तक आई न थी के बात गई ।   
 
लब तक आई न थी के बात गई ।   
  
  
 
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
 
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
 
 
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।   
 
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।   
  
  
 
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
 
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
 
 
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।   
 
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।   
  
  
 
हाय सरशरायां जवानी की,
 
हाय सरशरायां जवानी की,
 
 
आँख झपकी ही थी के रात गई ।   
 
आँख झपकी ही थी के रात गई ।   
  
  
 
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
 
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
 
 
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।   
 
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।   
  
  
क़ैदे-हस्ती से कब निजात 'जिगर'
+
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात 'जिगर'
 
+
 
मौत आई अगर हयात गई ।
 
मौत आई अगर हयात गई ।
 
</poem>
 
</poem>

23:35, 3 मई 2009 के समय का अवतरण


दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।


दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।


उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।


मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।


हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।


नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।


क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात 'जिगर'
मौत आई अगर हयात गई ।