"हावड़ा ब्रिज / अभिज्ञात" के अवतरणों में अंतर
(हावड़ा ब्रिज) |
छो (/ अभिज्ञात का नाम बदलकर हावड़ा ब्रिज / अभिज्ञात कर दिया गया है) |
(कोई अंतर नहीं)
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00:12, 6 मई 2009 का अवतरण
बंगाल में आये दिन बंद के दौरान किसी डायनासोर के अस्थिपंजर की तरह हावड़ा और कोलकाता के बीचोबीच हुगली नदी पर पड़ा रहता है हावड़ा ब्रिज जैसे सदियों पहले उसके अस्थिपंजर प्रवाहित किये गये हों हुगली में और वह अटक गया हो दोनों के बीच
लेकिन यह क्या अचानक पता चला डायनासोर के पैर गायब थे जो शायद आये दिन बंद से ऊब चले गये हैं कहीं और किसी शहर में तफरीह करने या फिर अंतरिक्ष में होंगे कहीं जैसे बंद के कारण चला जाता है बहुत कुछ बहुत कुछ दबे पांव
फिलहाल तो डायनासोर का अस्थिपंजर एक उपमा थी जो मेरे दुख से उपजी थी जिसका व्याकरण बंद के कारण हावड़ा ब्रिज की कराह की भाषा से बना था जिसे मैंने सुना उसी तरह जैसे पूरी आंतरिकता से सुनती हैं हुगली की लहरें
क्या आपने गौर किया है बंद के दिन अधिक बेचैन हो जाती हैं हुगली की लहरें वे शामिल हो जाती हैं ब्रिज के दुख में
बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुज़रना किसी बियाबान से गुज़रना है महानगर के बीचोबीच
बंद के दौरान तेज़-तेज़ चलने लगती हैं हवाएं जैसे चल रही हों किसी की सांसें तेज़ तेज़ और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह-रह कर सशंय
बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लम्बाई जैसे डूबने से पहले होती जाती हैं छायाएं लम्बी और लम्बी बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनायी देती है एक लम्बी कराह जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से और पता नहीं कहां-कहां से, किस-किस सीने से प्रतिदिन पल-पल हजारों लोगों और वाहनों को इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे नहीं उठा पा रहे थे अपने एकेलेपन का बोझ देखो, कहीं अकेलेपन के बोझ से टूटकर किसी दिन गिर न जाये हावड़ा ब्रिज
सोचता हूं तो कांप उठता हूं बिना हावड़ा ब्रिज के कितना सूना-सूना लगेगा बंगाल का परिदृश्य
ब्रिज का चित्र देखकर लोग पहचान लेते हैं वह रहा-वह रहा कोलकाता अपनी ही सांस्कृतिक गरिमा में जीता और उसी को चूर-चूर करता तिल-तिल मरता
सामान्य दिनों में हावड़ा ब्रिज पर चलते हुए कोई सुन सकता है उसकी धड़कन साफ़-साफ़ एक सिहरन सी दौड़ती रहती है उसकी रगों में जो हर वाहन ब्रिज से गुज़रने के बाद छोड़ जाता है अपने पीछे देता हुआ-धन्यवाद, कहता हुआ-टाटा, फिर मिलेंगे वाहनों की पीछे छूटी गर्म थरथराहट ब्रिज के रास्ते पहुंच जाती है आदमी के तलवों से होती हुई उसकी धमनियों में और आदमी एकाएक तब्दील हो जाता है स्वयं हावड़ा ब्रिज की पीठ में, उसके किसी पुर्जे में जिस पर से हो रहा है होता है पूरे इतमीनान के साथ आवागमन और यह मत सोचें कि यह संभव नहीं पुल दूसरों को पुल बनाने का हुनर जानता है हर बार एक आदमी एक वाहन एक मवेशी का पुल पार करने पुल को नये सिरे से बनाता है पुल हर बार वह दूसरे के पैरों से, चक्कों से करता है अपनी ही यात्रा पुल दूसरों के पैरों से चलता है अपने को पार करने के लिए अपने से पार हुए बिना कोई कभी नहीं बन सकता पुल जो यह राज़ जानते हैं वे सब हैं पुल के सगोतिये
अंग्रेज़ी राज में गांधी जी ने भी बंद को बनाया था पुल लेकिन अब बंद पुल नहीं है पुल नहीं रह गया है बंद सुबह से शाम तक हर आने जाने वाले से कहता है हावड़ा ब्रिज
यह एक पुल के ख़िलाफ़ आदमी के पक्ष में की गयी कार्रवाई नहीं है यह पुल के अर्थ को बचाने की पुरज़ोर कोशिश है और आख़िरकार हर कोशिश एक पुल ही तो है!
कई बार मुझे लगा है कि बंगाल के ललाट पर रखा हुआ एक विराट मुकुट है-हावड़ा ब्रिज यदि वह नहीं रहा तो.. तो उसके बाद बनने वाले ब्रिज होंगे उसके स्मारक लेकिन मुकुट नहीं रहेगा तो फिर नहीं रहेगा।