भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ये सब्जमंद-ए-चमन है / जिगर मुरादाबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जिगर मुरादाबादी }} ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके<br...) |
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके<br> | ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके<br> | ||
− | वो गुल | + | वो गुल है ज़ख्म-ए-बहाराँ जो मुस्कुरा ना सके<br><br> |
ये आदमी है वो परवाना, सम-ए-दानिस्ता<br> | ये आदमी है वो परवाना, सम-ए-दानिस्ता<br> |
00:22, 10 मई 2009 के समय का अवतरण
ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके
वो गुल है ज़ख्म-ए-बहाराँ जो मुस्कुरा ना सके
ये आदमी है वो परवाना, सम-ए-दानिस्ता
जो रौशनी में रहे, रौशनी को पा ना सके
ये है खुलूस-ए-मुहब्बत के हादीसात-ए-जहाँ
मुझे तो क्या, मेरे नक्श-ए-कदम मिटा ना सके
ना जाने आखिर इन आँसूओ पे क्या गुजरी
जो दिल से आँख तक आये, मगर बहा ना सके
करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िन्दा रह के मुकाम-ए-हयात पा ना सके
मेरी नज़र ने शब-ए-गम उन्हें भी देख लिया
वो बेशुमार सितारे के जगमगा ना सके
ये मेहर-ओ-माह मेरे, हमसफर रहे बरसों
फिर इसके बाद मेरी गर्दिशों को पा ना सके
घटे अगर तो बस एक मुश्त-ए-खाक है इंसान
बढ़े तो वसत-ए-कौनैन में समा ना सके