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Kavita Kosh से
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अंकुर जब सिर उठाता है
ज़मीन की छत फोड़ गिराता है
वह जब अंधेरे में अंगड़ाता है
मिट्टी का कलेजा फट जाता है
हरी छतरियों की तन जाती है कतार
छापामारों के दस्ते सज जाते हैं
पाँत के पाँत
नई हो या पुरानी
वह हर ज़मीन काटता है
हरा सिर हिलाता है
नन्हा धड़ तानता है
अंकुर आशा का रंग जमाता है।
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