भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ }} Category:गज़ल हम पर तुम्हारी चाह का इल्...)
 
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
  
 
दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है<br>
 
दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है<br>
अए जान-ए-जाँ ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है<br><br>
+
जान-ए-जाँ ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है<br><br>
  
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, न-काम ही तो है<br>
+
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है<br>
 
लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है<br><br>
 
लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है<br><br>
  

11:50, 12 मई 2009 का अवतरण

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है

करते हैं जिस पे ता'न, कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल-ओ-उल्फ़त-ए-नकाम ही तो है

दिल मुद्दई के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है
ऐ जान-ए-जाँ ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

दस्त-ए-फ़लक में, गर्दिश-ए-तक़दीर तो नहीं
दस्त-ए-फ़लक में, गर्दिश-ए-अय्याम ही तो है

आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यार-ए-ख़ुशख़साल सर-ए-बाम ही तो है

भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्त-ए-सरोद दर्द का हंगाम ही तो है