"नवम्बर, मेरा गहवारा / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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'''फ़ितरत की फ़ैयाज़ियाँ''' | '''फ़ितरत की फ़ैयाज़ियाँ''' | ||
− | + | मुझे सूरज ने पाला | |
− | + | चाँद की किरनों ने नहलाया | |
− | + | हर इक शय मुझसे थी मानूस | |
− | + | मुझसे बात करती थी | |
− | + | दरख़्तों की ज़बाँ | |
− | + | चिडि़यों के नग़्मे मैं समझता था | |
− | + | हवा में तितलियाँ परवाज़ करती थी | |
+ | मैं उनके साथ उड़ता था | ||
+ | मिरी मुट्ठी में जुगनू जगमगाते थे | ||
+ | मैं परियों के प्रिस्तानों में जाता था | ||
+ | अँधेरा काँपता था बिजलियों के ताज़ियानों<ref>कोडे़</ref> से | ||
+ | मैं उस पर मुस्कराता था | ||
+ | गरजते बादलों से दोस्ती थी | ||
+ | ख़ाक पर चलते हुए कीड़ों पे बेहद प्यार आता था | ||
+ | हर इक शय जैसे मेरी ज़ात थी मेरी हक़ीक़त थी | ||
+ | अनलहक़<ref>अहं ब्रह्मास्मि</ref> ही सदाक़त थी | ||
+ | हरे नीले सुनहरी सुर्ख़ अण्डे | ||
+ | आशियानों में परिन्दों के | ||
+ | वो सब मेरे खिलौने थे | ||
+ | मैं आफ़ाकी़ खिलौना था | ||
+ | मैं ख़ुद फ़ितरत था फ़ितरत मेरी हस्ती थी | ||
+ | इसी फ़ितरत ने मेरे ख़ूँ में लाखों बिजलियाँ भर दीं | ||
+ | मसें भीं रगो-पै में गुनूँ का बाँकपन आया | ||
+ | मिरे आगे मये रंगों में दुनिया का चमन आया | ||
+ | हर इक शमशाद-पैकर लेके फ़िर्दौसे-बदन आया | ||
+ | |||
+ | जिधर देखो उधर बर्नाइयाँ हैं | ||
+ | जिधर देखो उधर रानाइयाँ हैं | ||
+ | शफ़क़ के रंग में भीगी हुई परछाइयाँ हैं | ||
+ | |||
+ | मिरे लग्ज़ीदा<ref>काँपता हुआ</ref> लग्ज़ीदा क़लम ने | ||
+ | एक रंगीं और खुशबूदार कागज़ पर | ||
+ | बडी़ मुश्किल से रुकते-रुकते हर्फ़े-इश्क़ लिक्खा | ||
+ | और किसी की बारगाहे-हुस्न में भेजा | ||
+ | हया की शम्अ जल उट्ठी हरीमे-दिलरुबाई में | ||
+ | घुमाया सर झुकाकर देर तक कंगन कलाई में | ||
+ | |||
+ | '''जिक्र उस परिवश<ref>परी जैसे चेहरे वाला</ref> और फिर बयाँ अपना''' | ||
+ | कहाँ से आयी हो | ||
+ | कौन हो तुम | ||
+ | न गुल न ख़ुशबू | ||
+ | मगर तुम्हारा वुजूद ख़ुद रूहे-गुलिस्ताँ है | ||
+ | वो कायनाते-सुरूर जिसका | ||
+ | ख़ुद अपना सूरज है चाँद अपना | ||
+ | मैं कायनाते-सुरूर में साँस ले रहा हूँ | ||
+ | शकुन्तला है यहाँ न हेलन | ||
+ | न हीर है और न जूलियट है | ||
+ | फ़क़त तुम्हारे बदन का मौसम | ||
+ | जो मेरी नज़रों की नर्म बारिश में | ||
+ | रंग और नूर बन गया है | ||
+ | कोई नहीं तुमसे बढ़के दुनिया-ए-दिलबरी में | ||
+ | कोई नहीं मुझसे बढ़के दुनिया-ए-आशिक़ी में | ||
+ | हर एक से तुम हसीनतर हो | ||
+ | हर एक से मैं अज़ीमतर हूँ | ||
+ | |||
+ | *+* | ||
+ | तुम्हारे होंटों के ख़म में जो लफ़्ज़ बन रहे हैं | ||
+ | वो मेरे सीने में फूल की तरह खिल रहे हैं | ||
+ | तुम्हारी ‘हाँ’ इक गुलाब है ताज़ः-ओ-शिगुफ़्ता | ||
+ | कि जिससे ऐवाने-जाँ मुअ़त्तर | ||
+ | ‘नहीं’ भी नन्ही-सी इक कली है | ||
+ | जो दिल की नाज़ुक-सी शाख़ में सो रही है | ||
+ | ख़्वाबे-बहार बनकर | ||
+ | यह ख़्वाब ताबीर<ref>स्वप्न की व्याख्या</ref> के गुलिस्ताँ का मुन्तज़िर है | ||
+ | तुम्हारे दिलकश बदन के रंगों में मुज़्तरिब<ref>विकल,व्यग्र</ref> है | ||
+ | तुम्हारी आँखों से झाँकता है | ||
+ | तुम्हारी साँसों में काँपता है | ||
+ | मुझे ‘नहीं’ की कली अ़ता हो | ||
+ | कि जिससे ‘हाँ’ का गुलाब महके | ||
+ | |||
+ | *+* | ||
+ | |||
+ | तुम्हारे शहरे-जमाल में | ||
+ | मेरे दिल का कासा<ref>प्याला</ref> | ||
+ | भटक रहा है | ||
+ | तुम अपने होटों का शहद | ||
+ | आँखों के फूल | ||
+ | हाथों के चाँद दे दो | ||
+ | ये मुफ़्लिसी की सियाह रातें वुज़ूद पर तंज कर रही हैं | ||
+ | |||
+ | *+* | ||
+ | |||
+ | ज़मीन का रंग तुम ज़मीं का जमाल तुम हो | ||
+ | ज़मीं की दौलत | ||
+ | ज़मीं की बेटी | ||
+ | तुम अप्सराओं से और हूरों से पाकतर हो | ||
+ | कि बो तसव्वुर के आस्मानों की पुतलियाँ हैं | ||
+ | तमाम हुस्ने-गुमाँ के पैकर | ||
+ | मगर तुम उस ख़ाक की चमक हो | ||
+ | कि जिसकी नस-नस में | ||
+ | सेब, अंगूर और गेहूँ की फ़स्ल का ख़ूँ रवाँ-दवाँ है | ||
+ | सहर का सुरज तुम्हारे माथे को चूमता है | ||
+ | बदन में शबनम की रौशनी है | ||
+ | |||
+ | *+* | ||
+ | |||
+ | हवाएँ जो मेरी राज़दाँ हैं | ||
+ | वो मेरे होटों से लफ़्ज़ लेकर | ||
+ | तुम्हारे कानों की सीपियों में | ||
+ | गुहर के मानिन्द डालती हैं | ||
+ | मैं मुस्कराता हूँ | ||
+ | तुम भी हँसती हो | ||
+ | और दोनों | ||
+ | नयी तमन्नाओं के ज़ज़ीरों में घूमते हैं | ||
+ | न कोई महकूम<>शासित<> है न हाकिम | ||
+ | न कोई क़ानून है न सख़्ती | ||
+ | बस एक ज़ंजीरे-लुत्फ़, शमशिरे-दिलरुबाई | ||
+ | |||
+ | '''वरके-नाख़्वान्दा'''<ref>बिना पढ़ा हुआ पन्ना</ref> | ||
+ | |||
+ | मैं इक वरक़ हूँ | ||
+ | लिखा है किसने | ||
+ | पढ़ा है किसने | ||
+ | हर इक दरख़्त इक क़लम है हर शाख़ इक क़लम है | ||
+ | समन्दरों की दवात | ||
+ | नदियों में पिघली चाँदी की रौशनाई | ||
+ | फ़ज़ा के सैयाल नीलगूँ से | ||
+ | हवाओं के हाथ लिख रहे हैं | ||
+ | सितारों का नूर लिख रहा है | ||
+ | ज़मीन का रक़्स लिख रहा है | ||
+ | ज़मीन की पुश्त से निकलता गुलाबी सूरज | ||
+ | सुनहरी किरनों से लिख रहा है | ||
+ | गुज़रते लम्हात अपने तीरों से लिख रहे हैं | ||
+ | गुज़रती तारिख़ अपने नेज़ों से लिख रही है | ||
+ | तमाम अहबाब लिख रहे हैं | ||
+ | तमाम अग्यार लिख रहे हैं | ||
+ | हरीफ़ों के ख़ंज़रों पे ख़ूँ है | ||
+ | सियासते-मक्रो-फ़न की तलवार लिख रही है | ||
+ | महकते ज़ख़्मों के फूल अलफ़ाज़ बन गये हैं | ||
+ | तबस्सुमे-लुत्फ़े-यार का हर्फ़-हर्फ़ है गुंचः-ए-शिगुफ़्ता | ||
+ | हदस के ख़ारों की नोक में जुम्बिशे-क़लम है | ||
+ | ज़बाने-दुश्नाम लिख रही है | ||
+ | ज़बाने-बदनाम लिख रही है | ||
+ | ज़बाने-नाकाम लिख रही है | ||
+ | मगर मिरा दिल, मिरा जुनूँ भी तो लिख रहा है | ||
+ | मैं इक वरक़ हूँ | ||
+ | तमाम एहसासे-नातमामी | ||
+ | मगर मुकम्मल किताब जैसे | ||
+ | जो पढ़ सको तो मुझे बताना कि इस सहीफ़े में क्या लिखा है | ||
+ | |||
+ | '''सहीफ़ः ए-कायनात'''<ref>ब्रह्माण्ड रूपी पवित्र ग्रन्थ</ref> | ||
+ | |||
+ | ये दो वरक़ हैं | ||
+ | ज़मीन और आस्मान जिन पर सहीफ़-ए-कायनात तहरीर हो रहा है | ||
+ | फ़साना हस्ती को नेस्ती का | ||
+ | फ़साना नेकी का और बदी का | ||
+ | फ़साना ज़ुल्मत का रौशनी का | ||
+ | सहीफ़ःए-कायनात तहरीर हो रहा है | ||
+ | जो कल कली थी | ||
+ | वो आज गुल है | ||
+ | जो आज गुल है | ||
+ | वो कल समर है | ||
+ | |||
+ | हर एक शय वक़्त की हवाओं की ज़द पे | ||
+ | इक शमे-रहगुज़र है | ||
+ | जो बुझ रही है | ||
+ | जो जल रही है | ||
+ | वुजूद पर नाज़ कर रही है | ||
+ | |||
+ | हवाओं के तुन्द-ओ-तेज़ झोंके | ||
+ | जब आँधियों का लिबास पहने | ||
+ | उतरते हैं गारते-चमन पर | ||
+ | तो शाखे़-गुल अपना सर झुकाकर सलाम करती है | ||
+ | और फिर सर उठा के हँसती है | ||
+ | और कहती है- मुझको देखो | ||
+ | मैं फ़ितरते-लाज़वाल का रंगे-शाइरी हूँ | ||
+ | वुज़ूद का रक़्से-दिलबरी हूँ | ||
+ | जिसे मिटाने की कोशिशें हैं | ||
+ | वो मिट सका है न मिट सकेगा | ||
+ | यह रंग सह्ने-बमन से उबलेगा | ||
+ | मक़्तलों से तुलूअ़ होगा | ||
+ | |||
+ | '''हर्फ़े-बद''' | ||
+ | मिरे ख़िलाफ़ उठाया क़लम हरीफ़ों<ref>चालाक लोग</ref> ने | ||
+ | मिरा गुरूर बढा़ और सर बलन्द हुआ | ||
+ | यही सलीका है बस हर्फ़े-बद से बचने का | ||
+ | कि अपनी ज़ात को इतनी बलन्दियाँ दे दो | ||
+ | किसी का संगे-मलामत वहाँ तक आ न सके | ||
+ | सदाए-कूए-मलामत तलाश करती रहे | ||
+ | मगर नवाए-बहार-आशना को पा न सके | ||
+ | चिरागे-इल्म-ओ-हुनर को कोई बुझा न सके | ||
+ | |||
+ | जियो तो अपने दिल-ओ-जाँ के मयकदे में जियो | ||
+ | ख़ुद अपने ख़ूने-जिगर की शराबे-नाब पियो | ||
+ | जहाँ के सामने जब आओ ताज़ा-रू आओ | ||
+ | हुज़ूरे-मुहतसिब-ओ शैख़ में सुबू लाओ | ||
+ | जो ज़ख़्म-ख़ुर्दा<ref>घाव खाया हुआ</ref> है वो नग़्मःए-गुलू लाओ | ||
+ | दिले-शिकस्ता में बढ़ने दो रौशनी ग़म की | ||
+ | ये रौशनी तो है मीरास इब्ने-आदम की | ||
+ | ये रौशनी कि जो तलवार भी सिपर भी है | ||
+ | मिरी निग़ाह में पैमानःए-हुनर भी है | ||
+ | |||
+ | '''हसद'''<ref>ईर्ष्या</ref> | ||
+ | |||
+ | हसद की आँखों का रंग देखो | ||
+ | जो दिल के अन्दर भरे हुए हैं | ||
+ | वो ज़हर-आलूदा संग<ref>ज़हर में सना हुआ पत्थर</ref> देखो | ||
+ | जो हाथ में हैं वो फूल देखो | ||
+ | जो रूह में है बबूल देखो | ||
+ | लबों पे जो है वो हर्फ़ देखो | ||
+ | हकीर कितना है ज़र्फ़ देखो | ||
+ | कि दोस्त है | ||
+ | और दोस्त के मुँह पे बात कहने से डर रहा है | ||
+ | वुजूद ज़ाहिर में है मुकम्मल | ||
+ | मगर वो अन्दर बिखर रहा है | ||
+ | वह अपनी नफ़रत का ज़हर लेकर | ||
+ | ख़ुद अपने ख़ूँ में उतर रहा है | ||
+ | वो तंगदिल भी है तंगजाँ भी | ||
+ | तुनुक ज़मीर और तुनुक ज़बाँ भी | ||
+ | ख़बर नहीं उसको वो कहाँ है | ||
+ | कि हर तरफ़ एक शख़्स ऐसा नज़र के अन्दर बसा हुआ है | ||
+ | कि जिसके साये से काँपता है | ||
+ | जब अपना क़द उससे नापता है | ||
+ | तो अपने ख़ंजर को तोलता है | ||
+ | हसद का मारा हुआ यह बन्दा ग़रीबे-शहरे-दयारे-ख़ुद है | ||
+ | शराफ़ते-नफ़्स<ref>अस्तीत्व की शालीनता</ref> मर चुकी है बिचारा ख़्वेश-आशना<ref>स्वजनों से प्रेम करनेवाला</ref> नहीं है | ||
+ | |||
+ | मगर उसी दोस्त की बदौलत | ||
+ | मैं ख़ुद को पहचानने लगा हूँ | ||
+ | मैं उसका एहसान मानता हूँ | ||
+ | ख़ुदा करे उसका दिल कहीं से | ||
+ | सुकूँ की दौलत तलाश कर ले | ||
+ | |||
+ | '''क़ातिल की शिकस्त''' | ||
+ | |||
+ | इस कमींगाह<ref>छुपकर शिकार करने वाली जगह</ref> में है कितने कमाँदार बताओ | ||
+ | तीर कितने हैं सियह तरकश में | ||
+ | गिन के देखो तो ज़रा | ||
+ | कौन-सा तीर है मख़सूस मिरे दिल के लिए | ||
+ | |||
+ | इब्ने-मरियम को किया तुमने सरे-दार बलन्द | ||
+ | और वो ज़िन्दा है | ||
+ | तश्नगी तुमने मुहम्मद के नवासे को दी | ||
+ | "चश्मःए-फ़ैज़े-हुसैन इब्ने-अली जारी है" | ||
+ | |||
+ | इब्ने-मरियम न हुसैन इब्ने-अली हो लेकिन | ||
+ | ख़ूँ में है ख़ूने-शहादत की हरारत पिन्हाँ | ||
+ | वो जो सदियों से दहकता हुआ अंगारा है | ||
+ | और सीने में मिरे | ||
+ | एक नहीं, सैकड़ों-लाखों दिल हैं | ||
+ | वो किसी देस का दिल हो कि किसी क़ौम का दिल | ||
+ | वो किसी फ़र्दे-बशर का दिल हो | ||
+ | ज़ख्म-ख़ुर्दा हो कि नग़्मों से भरा | ||
+ | मेरे सीने में धड़कता है मिरा दिल बनकर | ||
+ | कितने दिल क़त्ल करोगे आख़िर | ||
+ | कितने जलते हुए तारों को बुझा सकते हो | ||
+ | कितने ख़ुर्शीदों को नेज़ों पे उठा सकते हो | ||
+ | "क़त्ल करते-करते ख़ुद तुमको जुनूँ हो जाएगा" | ||
+ | |||
+ | (नामुकम्मल-ज़ेरे-तख़लीक़) | ||
+ | |||
+ | |||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} | ||
+ | </poem> |
00:00, 26 मई 2009 का अवतरण
नवम्बर, मेरा गहवारा
(आपबीती और जगबीती)
=============
रख़्से-तख़्लीक़<ref>सृष्टि का नृत्य</ref>
जब कहीं फूल हँसे
जब कोई तिफ़्ल सरे-राह मिले
जब कोई शाख़े-सियाह-रंग पे जब चाँद खिले
दिल ये कहता है हसीं है दुनिया
चीथड़ों ही में सही माह-जबीं है दुनिया
दस्ते-सैयाद भी है बाज़ुए-जल्लाद भी है
रक़्से-तख़्लीके़-जहाने-गुज़राँ जारी है
खोल आँख, ज़मीं देख, फ़लक देख, फ़ज़ा देख
नवम्बर, मेरा गहवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माहे-मुनव्वर<ref>उजालों से भरा हुआ महीना</ref> में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी
मिरे तारे-नफ़स में जुम्बिशे-बादे-सबा आयी
मशामे-रूह में
मिटी की ख़ुशबू फूल बनकर मुस्कुरा उट्ठी
लहू ने गीत गाया
शमे-हस्ती जगमगा उट्ठी
यह लम्हा-लम्हःए-मिलादे-आदम था
मैं सत्तर साल पहले इस तमाशगाहे़-आलम में
इक आफ़ाक़ी<ref>आकाशीय</ref> खिलौना था
हवा के हाथ सहलाते थे मेरे नर्म बालों को
मिरी आँखों में रातें नींद का काजल लगाती थीं
सहर की पहली किरनें चूमती थीं मेरी पलकों को
मुझे चाँद और तारे मुस्कुराकर देखते थे
मौसमों की ग़र्दिशें झूला झुलाती थीं
भरी बरसात में बारिश के छींटे
गर्मियों में लू के झोंके
मुझसे मिलने के लिए आते
वो कहते थे हमारे साथ आओ
चल के खेलें बाग़ो-सहरा
मिरी माँ अपाने आँचल में छुपा लेती थी नन्हे से खिलौनों को
मिरी हैरत की आँखें
उस महब्बत से भरे चेहरे को तकती थीं
जिस आईने में पहली बार मैंने
अपना चेहरा आप देखा था
वो चेहरा क्या था
सूरज था, ख़ुदा था या पयम्बर था
वो चेहरा जिससे बढ़कर ख़ूबसूरत
कोई चेहरा हो नहीं सकता
कि वो इक माँ का चेहरा था
जो अपने दिल के ख़्वाबों, प्यार की किरनों से रौशन था
वो पाकीज़ा मुक़द्दस सीनःए-ज़र्रीं<ref>स्वर्णमय</ref>
वह उसमें दूध की नहरें
वह मौज़े-कौसरो-तसनीम<ref>स्वर्ग की नहरें</ref> थी
या शहदो-शबनम थीं
उन्हीं की चन्द बूँदें सिह-हर्फ़ो-जादुए-लफ़्ज़ो-बयाँ<ref>भाषा और अभिव्यक्ति का जादू</ref> बनकर
मिरे होंटों से खुशबू-ए-ज़बाँ बनकर
सरे-लौहो-क़लम<ref>लिखने की तख़्ती और क़लम के ऊपर</ref> आती हैं तो शमशीर की सूरत चमकती हैं
हसीनों के लिए वह ग़ाज़ःए-रुख़सारो-आरिज़ हैं
खनकती चूड़ियों, बजती हुई पायल को इक आहंग देती है
ज़मीं की गर्दिशों, तारीख़ की आवाज़े-पा में ढलती जाती है।
जो अब मेरी ज़बाँ है
मेरे बचपन में वह मेरी माँ की लोरी थी
यह लोरी इक अमानत है
मेरा हर शे’र अब इसकी हिफ़ाज़त की ज़मानत है
इक़राअ़<ref>पढो़</ref>-अल्लमा-बिलक़लम
मिरा पहला सबक इक़राअ़
है तहसीने-क़लम<ref>क़लम की प्रशंसा</ref> जिसमें
है तक़रीमे-क़लम जिसमें
क़लम तहरीके-रब्बानी
क़लम तख़्लीके़-इन्सानी
क़लम तहज़ीबे-रूहानी
क़लम ही शाखे़-तूबा<ref>एक ख़ुशबूदार पेड़</ref> भी है अंगुश्ते-हिनाई भी
मिरे हाथों में आकर रक़्स करती है
हज़ारों दाइरों में चाँद और सूरज की मेहराबें
दरख़शां इल्म और हिक़मत की कन्दीलें
हिलाले-नौ का सीना माहे-क़ामिल का ख़ज़ीना है
मिरी उँगली ने पहले ख़ाक के सीने पे हर्फ़े-अव्वलीं लिक्खा
फिर उसके बाद तख़्ती पर क़लम का नक़्शे-सानी था
क़लम अंगुश्ते-इन्सानी का जलवा है
उरूज़े-आदमे-ख़ाकी़<ref>नश्वर मनुष्य</ref> का दिलक़श इस्तिआरा<ref>प्रतीक</ref> है
फ़ितरत की फ़ैयाज़ियाँ
मुझे सूरज ने पाला
चाँद की किरनों ने नहलाया
हर इक शय मुझसे थी मानूस
मुझसे बात करती थी
दरख़्तों की ज़बाँ
चिडि़यों के नग़्मे मैं समझता था
हवा में तितलियाँ परवाज़ करती थी
मैं उनके साथ उड़ता था
मिरी मुट्ठी में जुगनू जगमगाते थे
मैं परियों के प्रिस्तानों में जाता था
अँधेरा काँपता था बिजलियों के ताज़ियानों<ref>कोडे़</ref> से
मैं उस पर मुस्कराता था
गरजते बादलों से दोस्ती थी
ख़ाक पर चलते हुए कीड़ों पे बेहद प्यार आता था
हर इक शय जैसे मेरी ज़ात थी मेरी हक़ीक़त थी
अनलहक़<ref>अहं ब्रह्मास्मि</ref> ही सदाक़त थी
हरे नीले सुनहरी सुर्ख़ अण्डे
आशियानों में परिन्दों के
वो सब मेरे खिलौने थे
मैं आफ़ाकी़ खिलौना था
मैं ख़ुद फ़ितरत था फ़ितरत मेरी हस्ती थी
इसी फ़ितरत ने मेरे ख़ूँ में लाखों बिजलियाँ भर दीं
मसें भीं रगो-पै में गुनूँ का बाँकपन आया
मिरे आगे मये रंगों में दुनिया का चमन आया
हर इक शमशाद-पैकर लेके फ़िर्दौसे-बदन आया
जिधर देखो उधर बर्नाइयाँ हैं
जिधर देखो उधर रानाइयाँ हैं
शफ़क़ के रंग में भीगी हुई परछाइयाँ हैं
मिरे लग्ज़ीदा<ref>काँपता हुआ</ref> लग्ज़ीदा क़लम ने
एक रंगीं और खुशबूदार कागज़ पर
बडी़ मुश्किल से रुकते-रुकते हर्फ़े-इश्क़ लिक्खा
और किसी की बारगाहे-हुस्न में भेजा
हया की शम्अ जल उट्ठी हरीमे-दिलरुबाई में
घुमाया सर झुकाकर देर तक कंगन कलाई में
जिक्र उस परिवश<ref>परी जैसे चेहरे वाला</ref> और फिर बयाँ अपना
कहाँ से आयी हो
कौन हो तुम
न गुल न ख़ुशबू
मगर तुम्हारा वुजूद ख़ुद रूहे-गुलिस्ताँ है
वो कायनाते-सुरूर जिसका
ख़ुद अपना सूरज है चाँद अपना
मैं कायनाते-सुरूर में साँस ले रहा हूँ
शकुन्तला है यहाँ न हेलन
न हीर है और न जूलियट है
फ़क़त तुम्हारे बदन का मौसम
जो मेरी नज़रों की नर्म बारिश में
रंग और नूर बन गया है
कोई नहीं तुमसे बढ़के दुनिया-ए-दिलबरी में
कोई नहीं मुझसे बढ़के दुनिया-ए-आशिक़ी में
हर एक से तुम हसीनतर हो
हर एक से मैं अज़ीमतर हूँ
*+*
तुम्हारे होंटों के ख़म में जो लफ़्ज़ बन रहे हैं
वो मेरे सीने में फूल की तरह खिल रहे हैं
तुम्हारी ‘हाँ’ इक गुलाब है ताज़ः-ओ-शिगुफ़्ता
कि जिससे ऐवाने-जाँ मुअ़त्तर
‘नहीं’ भी नन्ही-सी इक कली है
जो दिल की नाज़ुक-सी शाख़ में सो रही है
ख़्वाबे-बहार बनकर
यह ख़्वाब ताबीर<ref>स्वप्न की व्याख्या</ref> के गुलिस्ताँ का मुन्तज़िर है
तुम्हारे दिलकश बदन के रंगों में मुज़्तरिब<ref>विकल,व्यग्र</ref> है
तुम्हारी आँखों से झाँकता है
तुम्हारी साँसों में काँपता है
मुझे ‘नहीं’ की कली अ़ता हो
कि जिससे ‘हाँ’ का गुलाब महके
*+*
तुम्हारे शहरे-जमाल में
मेरे दिल का कासा<ref>प्याला</ref>
भटक रहा है
तुम अपने होटों का शहद
आँखों के फूल
हाथों के चाँद दे दो
ये मुफ़्लिसी की सियाह रातें वुज़ूद पर तंज कर रही हैं
*+*
ज़मीन का रंग तुम ज़मीं का जमाल तुम हो
ज़मीं की दौलत
ज़मीं की बेटी
तुम अप्सराओं से और हूरों से पाकतर हो
कि बो तसव्वुर के आस्मानों की पुतलियाँ हैं
तमाम हुस्ने-गुमाँ के पैकर
मगर तुम उस ख़ाक की चमक हो
कि जिसकी नस-नस में
सेब, अंगूर और गेहूँ की फ़स्ल का ख़ूँ रवाँ-दवाँ है
सहर का सुरज तुम्हारे माथे को चूमता है
बदन में शबनम की रौशनी है
*+*
हवाएँ जो मेरी राज़दाँ हैं
वो मेरे होटों से लफ़्ज़ लेकर
तुम्हारे कानों की सीपियों में
गुहर के मानिन्द डालती हैं
मैं मुस्कराता हूँ
तुम भी हँसती हो
और दोनों
नयी तमन्नाओं के ज़ज़ीरों में घूमते हैं
न कोई महकूम<>शासित<> है न हाकिम
न कोई क़ानून है न सख़्ती
बस एक ज़ंजीरे-लुत्फ़, शमशिरे-दिलरुबाई
वरके-नाख़्वान्दा<ref>बिना पढ़ा हुआ पन्ना</ref>
मैं इक वरक़ हूँ
लिखा है किसने
पढ़ा है किसने
हर इक दरख़्त इक क़लम है हर शाख़ इक क़लम है
समन्दरों की दवात
नदियों में पिघली चाँदी की रौशनाई
फ़ज़ा के सैयाल नीलगूँ से
हवाओं के हाथ लिख रहे हैं
सितारों का नूर लिख रहा है
ज़मीन का रक़्स लिख रहा है
ज़मीन की पुश्त से निकलता गुलाबी सूरज
सुनहरी किरनों से लिख रहा है
गुज़रते लम्हात अपने तीरों से लिख रहे हैं
गुज़रती तारिख़ अपने नेज़ों से लिख रही है
तमाम अहबाब लिख रहे हैं
तमाम अग्यार लिख रहे हैं
हरीफ़ों के ख़ंज़रों पे ख़ूँ है
सियासते-मक्रो-फ़न की तलवार लिख रही है
महकते ज़ख़्मों के फूल अलफ़ाज़ बन गये हैं
तबस्सुमे-लुत्फ़े-यार का हर्फ़-हर्फ़ है गुंचः-ए-शिगुफ़्ता
हदस के ख़ारों की नोक में जुम्बिशे-क़लम है
ज़बाने-दुश्नाम लिख रही है
ज़बाने-बदनाम लिख रही है
ज़बाने-नाकाम लिख रही है
मगर मिरा दिल, मिरा जुनूँ भी तो लिख रहा है
मैं इक वरक़ हूँ
तमाम एहसासे-नातमामी
मगर मुकम्मल किताब जैसे
जो पढ़ सको तो मुझे बताना कि इस सहीफ़े में क्या लिखा है
सहीफ़ः ए-कायनात<ref>ब्रह्माण्ड रूपी पवित्र ग्रन्थ</ref>
ये दो वरक़ हैं
ज़मीन और आस्मान जिन पर सहीफ़-ए-कायनात तहरीर हो रहा है
फ़साना हस्ती को नेस्ती का
फ़साना नेकी का और बदी का
फ़साना ज़ुल्मत का रौशनी का
सहीफ़ःए-कायनात तहरीर हो रहा है
जो कल कली थी
वो आज गुल है
जो आज गुल है
वो कल समर है
हर एक शय वक़्त की हवाओं की ज़द पे
इक शमे-रहगुज़र है
जो बुझ रही है
जो जल रही है
वुजूद पर नाज़ कर रही है
हवाओं के तुन्द-ओ-तेज़ झोंके
जब आँधियों का लिबास पहने
उतरते हैं गारते-चमन पर
तो शाखे़-गुल अपना सर झुकाकर सलाम करती है
और फिर सर उठा के हँसती है
और कहती है- मुझको देखो
मैं फ़ितरते-लाज़वाल का रंगे-शाइरी हूँ
वुज़ूद का रक़्से-दिलबरी हूँ
जिसे मिटाने की कोशिशें हैं
वो मिट सका है न मिट सकेगा
यह रंग सह्ने-बमन से उबलेगा
मक़्तलों से तुलूअ़ होगा
हर्फ़े-बद
मिरे ख़िलाफ़ उठाया क़लम हरीफ़ों<ref>चालाक लोग</ref> ने
मिरा गुरूर बढा़ और सर बलन्द हुआ
यही सलीका है बस हर्फ़े-बद से बचने का
कि अपनी ज़ात को इतनी बलन्दियाँ दे दो
किसी का संगे-मलामत वहाँ तक आ न सके
सदाए-कूए-मलामत तलाश करती रहे
मगर नवाए-बहार-आशना को पा न सके
चिरागे-इल्म-ओ-हुनर को कोई बुझा न सके
जियो तो अपने दिल-ओ-जाँ के मयकदे में जियो
ख़ुद अपने ख़ूने-जिगर की शराबे-नाब पियो
जहाँ के सामने जब आओ ताज़ा-रू आओ
हुज़ूरे-मुहतसिब-ओ शैख़ में सुबू लाओ
जो ज़ख़्म-ख़ुर्दा<ref>घाव खाया हुआ</ref> है वो नग़्मःए-गुलू लाओ
दिले-शिकस्ता में बढ़ने दो रौशनी ग़म की
ये रौशनी तो है मीरास इब्ने-आदम की
ये रौशनी कि जो तलवार भी सिपर भी है
मिरी निग़ाह में पैमानःए-हुनर भी है
हसद<ref>ईर्ष्या</ref>
हसद की आँखों का रंग देखो
जो दिल के अन्दर भरे हुए हैं
वो ज़हर-आलूदा संग<ref>ज़हर में सना हुआ पत्थर</ref> देखो
जो हाथ में हैं वो फूल देखो
जो रूह में है बबूल देखो
लबों पे जो है वो हर्फ़ देखो
हकीर कितना है ज़र्फ़ देखो
कि दोस्त है
और दोस्त के मुँह पे बात कहने से डर रहा है
वुजूद ज़ाहिर में है मुकम्मल
मगर वो अन्दर बिखर रहा है
वह अपनी नफ़रत का ज़हर लेकर
ख़ुद अपने ख़ूँ में उतर रहा है
वो तंगदिल भी है तंगजाँ भी
तुनुक ज़मीर और तुनुक ज़बाँ भी
ख़बर नहीं उसको वो कहाँ है
कि हर तरफ़ एक शख़्स ऐसा नज़र के अन्दर बसा हुआ है
कि जिसके साये से काँपता है
जब अपना क़द उससे नापता है
तो अपने ख़ंजर को तोलता है
हसद का मारा हुआ यह बन्दा ग़रीबे-शहरे-दयारे-ख़ुद है
शराफ़ते-नफ़्स<ref>अस्तीत्व की शालीनता</ref> मर चुकी है बिचारा ख़्वेश-आशना<ref>स्वजनों से प्रेम करनेवाला</ref> नहीं है
मगर उसी दोस्त की बदौलत
मैं ख़ुद को पहचानने लगा हूँ
मैं उसका एहसान मानता हूँ
ख़ुदा करे उसका दिल कहीं से
सुकूँ की दौलत तलाश कर ले
क़ातिल की शिकस्त
इस कमींगाह<ref>छुपकर शिकार करने वाली जगह</ref> में है कितने कमाँदार बताओ
तीर कितने हैं सियह तरकश में
गिन के देखो तो ज़रा
कौन-सा तीर है मख़सूस मिरे दिल के लिए
इब्ने-मरियम को किया तुमने सरे-दार बलन्द
और वो ज़िन्दा है
तश्नगी तुमने मुहम्मद के नवासे को दी
"चश्मःए-फ़ैज़े-हुसैन इब्ने-अली जारी है"
इब्ने-मरियम न हुसैन इब्ने-अली हो लेकिन
ख़ूँ में है ख़ूने-शहादत की हरारत पिन्हाँ
वो जो सदियों से दहकता हुआ अंगारा है
और सीने में मिरे
एक नहीं, सैकड़ों-लाखों दिल हैं
वो किसी देस का दिल हो कि किसी क़ौम का दिल
वो किसी फ़र्दे-बशर का दिल हो
ज़ख्म-ख़ुर्दा हो कि नग़्मों से भरा
मेरे सीने में धड़कता है मिरा दिल बनकर
कितने दिल क़त्ल करोगे आख़िर
कितने जलते हुए तारों को बुझा सकते हो
कितने ख़ुर्शीदों को नेज़ों पे उठा सकते हो
"क़त्ल करते-करते ख़ुद तुमको जुनूँ हो जाएगा"
(नामुकम्मल-ज़ेरे-तख़लीक़)