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"अभिशाप / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

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'''अभिशाप'''
 
 
 
मैं
 
मैं
 
तुम्हें सरापती हूँ
 
तुम्हें सरापती हूँ

15:32, 6 जून 2009 के समय का अवतरण

मैं
तुम्हें सरापती हूँ
खोल अपने केश
लेती हूँ प्रतिज्ञा
धूर्त शकुनि!
आज फिर से
आ गए
गांधार से तुम, झूठ!
बहकाने हमारे भीष्मवंशी
छल-बलों को।
फिर भले चौसर खिलाओ
शासकों को ;
किंतु मैं हूँ - अग्निगर्भा,
एक ही केवल
सुदर्शन-चक्र मेरे साथ होगा।
चीर देंगे
वीर, मेरे धीर
शत-शत अंध-असुरों को
अकेले
और रचना ही पडे़गा
अब महाभारत ;
उठे संधान करने
संधियाँ सब
भरतवंशी पुत्र अलबेले।