भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में / जोश मलीहाबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जोश मलीहाबादी }}<poem> Category:ग़ज़ल इबादत करते हैं जो ...)
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है  
 
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है  
  
जो डर के नार-ए-दोज़ ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं  
+
जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं  
 
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है  
 
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है  
  
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
  
 
कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्द'अ हो जा  
 
कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्द'अ हो जा  
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बा ख़ुदा हो जा  
+
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा हो जा  
  
 
उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई  
 
उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई  
 
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा
 
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा

00:13, 10 जून 2009 का अवतरण


इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है

जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है

मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत है

कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्द'अ हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा हो जा

उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा