भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"छाँह में झुलसे जले / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''छाँह में झुलसे जले''' एक साय...)
(कोई अंतर नहीं)

23:13, 16 जून 2009 का अवतरण

छाँह में झुलसे जले


एक साया
तमतमाया
बोलता
लो तप जरा
और हम
पेड़ों तले भी
छाँह में
झुलसे जले -
साथ सोए स्वप्न को
पल-पल झिंझोड़ा
देखा
उनींदी आँख से,
औ’ सकपकाए।

बाँह धर कर
स्वप्न ने
कुछ पास खींचा,
आँख का
अंजन नहीं हूँ
स्वप्न हूँ
मत आँख खोलो।

कल्पदर्शी चक्षु का
अविराम नर्तन
तरलता के बीच
पल-पल
थिरकता है
और छाया को
तपन के
ताड़नों से
हेरता है।