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"धरती / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

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23:34, 21 जून 2009 के समय का अवतरण

धरती

यह धरती
कितना बोएगी
अपने भीतर
बीज तुम्हारे
बिना खाद पानी रखाव के?
सिर पर सम्मुख
जलता सूरज
भभक रहा है
लपटों में घिर देह बचाती
पृथ्वी का हरियाला आँचल
झुलस गया है
चीत्कार पर नहीं करेगी
इसे विधाता ने रच डाला था
सहने को
भला-बुरा सब
खेल-खेल में अनायास ही,
केवल सब को
सब देने को।