"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | ||
− | + | ||
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर' | |रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर' | ||
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर' | |संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर' | ||
− | |||
हो गया पूर्ण अज्ञात वास, पाडंव लौटे वन से सहास, | हो गया पूर्ण अज्ञात वास, पाडंव लौटे वन से सहास, | ||
− | |||
पावक में कनक-सदृश तप कर, वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, | पावक में कनक-सदृश तप कर, वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, | ||
− | |||
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, | नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, | ||
− | |||
कुछ और नया उत्साह लिये। | कुछ और नया उत्साह लिये। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, | सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, | ||
− | |||
शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, | शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, | ||
− | |||
विघ्नों को गले लगाते हैं, | विघ्नों को गले लगाते हैं, | ||
− | |||
काँटों में राह बनाते हैं। | काँटों में राह बनाते हैं। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, | मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, | ||
− | |||
जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, | जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, | ||
− | |||
शूलों का मूल नसाने को, | शूलों का मूल नसाने को, | ||
− | |||
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। | बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में? | है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में? | ||
− | |||
खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। | खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। | ||
− | |||
मानव जब जोर लगाता है, | मानव जब जोर लगाता है, | ||
− | |||
पत्थर पानी बन जाता है। | पत्थर पानी बन जाता है। | ||
− | + | ण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो। | मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो। | ||
− | |||
बत्ती जो नहीं जलाता है | बत्ती जो नहीं जलाता है | ||
− | |||
रोशनी नहीं वह पाता है। | रोशनी नहीं वह पाता है। | ||
− | |||
− | |||
− | |||
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड, | पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड, | ||
− | |||
मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार। | मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार। | ||
− | |||
जब फूल पिरोये जाते हैं, | जब फूल पिरोये जाते हैं, | ||
− | |||
हम उनको गले लगाते हैं। | हम उनको गले लगाते हैं। |
14:13, 4 मई 2008 का अवतरण
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर' |संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
हो गया पूर्ण अज्ञात वास, पाडंव लौटे वन से सहास, पावक में कनक-सदृश तप कर, वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, कुछ और नया उत्साह लिये। सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं। मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में? खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है। ण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो। बत्ती जो नहीं जलाता है रोशनी नहीं वह पाता है। पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड, मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार। जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं।