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13:31, 12 सितम्बर 2006 का अवतरण

लेखक: अज्ञेय

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भोर का बावरा अहेरी

पहले बिछाता है आलोक की

लाल-लाल कनियाँ

पर जब खींचता है जाल को

बाँध लेता है सभी को साथः

छोटी-छोटी चिड़ियाँ

मँझोले परेवे

बड़े-बड़े पंखी

डैनों वाले डील वाले

डौल के बैडौल

उड़ने जहाज़

कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले

तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली

उपयोग-सुंदरी

बेपनाह कायों कोः

गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी

पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि

रूप-रेखा को

और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो

धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को

हरा देगी !


बावरे अहेरी रे

कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः

एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को

दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा ?

ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे

मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के

आलोक की अनी से अपनी,

गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः

विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा

मेरी आँखे आँज जा

कि तुझे देखूँ

देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये

पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे –

बावरे अहेरी