भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शायद कोहरे में न भी दीखे / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
+
{{KKRachna
रचनाकार: [[नागार्जुन]]
+
|रचनाकार=नागार्जुन  
[[Category:कविताएँ]]
+
}}
[[Category:नागार्जुन]]
+
 
+
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
 
+
 
+
 
वो गया
 
वो गया
  

22:21, 24 जून 2009 का अवतरण

वो गया

वो गया

बिल्कुल ही चला गया

पहाड़ की ओट में


लाल-लाल गोला सूरज का

शायद सुबह-सुबह

दीख जाए पूरब में

शायद कोहरे में न भी दीखे !

फ़िलहाल वो

डूबता-डूबता दीख गया !

दिनान्त का आरक्त भास्कर

जेठ के उजले पाख की नौवीं साँझ

पसारेगी अपना आँचल अभी-अभी

हिम्मत न होगी तमिस्रा को

धरती पर झाँकने की !

सहमी-सहमी-सी वो प्रतीक्षा करेगी

उधर, उस ओर

खण्डहर की ओट में !

जी हाँ, परित्यक्त राजधानी के

खण्डहरोंवाले उन उदास झुरमुटों में

तमिस्रा करेगी इन्तज़ार

दो बजे रात तक

यानि तिथिक्रम के हिसाब से,

आधी धुली चाँदनी

तब तक खिली रहेगी

फिर, तमिस्रा का नम्बर आएगा !

यानि अन्धकार का !


1984 में रचित