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15:28, 25 जून 2009 का अवतरण
सप्ताह की कविता
शीर्षक: बाबू जी
रचनाकार: आलोक श्रीवास्तव
घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी