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"औरतें डरती हैं / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर
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21:35, 27 जून 2009 का अवतरण
औरतें डरती हैं
अजीब सच है ये
कि औरतें डरती हैं
अपने शब्दों के अर्थ समझने में।
काली किताब के
पन्नों में दबे शब्द
किसी अंधी खोह की सीढ़ियाँ
उतर जाते हैं,
किरण-भर उजाला
घडी़-भर को
शव्दों का मुँह फेरता है ऊपर
पर भीड़ के हाथों
चुन-चुन
अर्थ तलाशती खोजी सूँघें
छिटका देंगी अनजानी गंध की
बूँदें दो
और गिरफ़्तार हो जाएगी
पन्ना-पन्ना पुस्तक
जाने कितनी उँगलियों की गंध सहेजी
इसीलिए डरती हैं औरतें
अपने सारे
अजीब सच लेकर
सच में।