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"और नपुंसक हुई हवाएं / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर

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राजमहल के मंत्र बावरे अब भी ये गातीं।
 
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फ़र्क नहीं पड़ता है कोई
 
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बाज़ नहीं आते राजा
 
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महलसरा में हैं कुचली जातीं।
 
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रिश्ता भी टूट चुका,
 
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झंडा पुरखों के देवालय का है
 
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रात फुंका,
 
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राख उसी की
 
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बस्ती भर में अब ये बरसातीं।
 
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16:40, 12 सितम्बर 2006 का अवतरण

कवि: कुमार रवींद्र

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और नपुंसक हुई हवाएं

चलती हैं, बदलाव नहीं लातीं।


अंधे गलियारों में फिरतीं

खूब गूंजती हैं,

किसी अपाहिज हुए देव को

वहीं पूजती हैं,

पगडंडी पर

राजमहल के मंत्र बावरे अब भी ये गातीं।


फ़र्क नहीं पड़ता है कोई

इनके आने से,

बाज़ नहीं आते राजा

झुनझुना बजाने से,

नाजुक कलियां

महलसरा में हैं कुचली जातीं।


जंगली और हवाओं का

रिश्ता भी टूट चुका,

झंडा पुरखों के देवालय का है

रात फुंका,

राख उसी की

बस्ती भर में अब ये बरसातीं।