भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"एक मोअ'म्मा है समझने का / फ़ानी बदायूनी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 24: | पंक्ति 24: | ||
कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का | कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का | ||
− | हर नफ़स उमरे गुज़िश्ता की है | + | हर नफ़स उमरे गुज़िश्ता की है मय्यत फ़ानी |
ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिये जाने का | ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिये जाने का | ||
</poem> | </poem> |
14:26, 5 जुलाई 2009 का अवतरण
एक मोअ'म्मा है समझने का ना समझाने का
ज़िन्दगी काहे को है ख़्वाब है दीवाने का
ख़ल्क़ कहती है जिसे दिल तेरे दीवाने का
एक गोशा है यह दुनिया इसी वीराने का
मुख़्तसर क़िस्सा-ए-ग़म यह है कि दिल रखता हूँ
राज़-ए-कौनैन ख़ुलासा है इस अफ़साने का
तुमने देखा है कभी घर को बदलते हुए रंग
आओ देखो ना तमाशा मेरे ग़मख़ाने का
दिल से पोंछीं तो हैं आँखों में लहू की बूंदें
सिलसिला शीशे से मिलता तो है पैमाने का
हमने छानी हैं बहुत दैर-ओ-हरम की गलियाँ
कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का
हर नफ़स उमरे गुज़िश्ता की है मय्यत फ़ानी
ज़िन्दगी नाम है मर मर के जिये जाने का