"अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए(ग़ज़ल) / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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कोई भी फ़स्ल हो, फ़िरदौस-ब-दामाँ चलिए | कोई भी फ़स्ल हो, फ़िरदौस-ब-दामाँ चलिए | ||
− | रस्मे | + | रस्मे-देरिनःए-आलम<ref>संसार की पुरानी प्रथा</ref> को बदलने के लिए |
− | -देरिनःए-आलम<ref>संसार की पुरानी प्रथा</ref> को बदलने के लिए | + | |
रस्मे-देरीनःए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए | रस्मे-देरीनःए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए | ||
− | आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा | + | आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा |
− | अपनी पलकों | + | अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए |
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शोलः-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बादे-समूम | शोलः-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बादे-समूम | ||
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दिल की राहों से सूए-मंज़िले-इन्साँ चलिए | दिल की राहों से सूए-मंज़िले-इन्साँ चलिए | ||
− | + | ग़म नयी सुब्ह के तारे का बहुत है लेकिन | |
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लेके अब परचमे-ख़ुर्शीदे ज़र-अफ़शाँ चलिए | लेके अब परचमे-ख़ुर्शीदे ज़र-अफ़शाँ चलिए | ||
08:24, 12 जुलाई 2009 का अवतरण
ग़ज़ल५
(‘आतश' की ज़मीन में)
कभी खन्दाँ,<ref>प्रसन्न</ref> कभी गिरियाँ,<ref>उदास</ref> कभी रक़्साँ चलिए
दूर तक साथ तिरे, उम्रे-गुरेज़ाँ, चलिए
ज़ौके़-आराइशो-गुलकारिए-अश्के-ख़ूँ<ref>ख़ूँ के आँसुओं की सजावट का शौक</ref> से
कोई भी फ़स्ल हो, फ़िरदौस-ब-दामाँ चलिए
रस्मे-देरिनःए-आलम<ref>संसार की पुरानी प्रथा</ref> को बदलने के लिए
रस्मे-देरीनःए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए
आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा
अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए
शोलः-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बादे-समूम
शोलः-ए-जाँ की तरह चाक-गिरीबाँ चलिए
अक़्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन
दिल की राहों से सूए-मंज़िले-इन्साँ चलिए
ग़म नयी सुब्ह के तारे का बहुत है लेकिन
लेके अब परचमे-ख़ुर्शीदे ज़र-अफ़शाँ चलिए
सर-ब-कफ़ चलने की आदत में न फ़र्क़ आ जाए
कूचःए-दार में सरमस्तो-ग़ज़लख़्वाँ चलिए