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"अमरनाथ साहिर" के अवतरणों में अंतर

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'''कुछ फुटकर शे’र'''
 
'''कुछ फुटकर शे’र'''
  

18:28, 13 जुलाई 2009 का अवतरण

कुछ फुटकर शे’र

होने को तो है अब भी वही हुस्न, वही इश्क़।

जो हर्फ़े-ग़लत होके मिटा नक़्शे-वफ़ा था॥


पिन्हाँ नज़र से पर्द-ए-दिल में रहा वोह शोख़।

क्या इम्तयाज़ हो मुझे हिज्रो-विसाल का॥


ऐ परीरू! तेरे दीवाने का ईमाँ क्या है।

इक निगाहे-ग़लत अन्दाज़ पै क़ुर्बां होना॥


जुनूने इश्क़ में कब तन-बदन का होश रहता है।

बढ़ा जब जोशे-सौदा हमने सर को दर्दे-सर जाना॥


एक जज़्बा था अज़ल से गोशये-दिल में निहाँ।

इश्क़ को इस हुस्न के बाज़ार ने रुसवा किया॥


तमन्नाएं बर आई अपनी तर्केमुद्दआ होकर।

हुआ दिल बेमतमन्ना अब, रहा मतलब से क्या मतलब॥


देखकर आईना कहते हैं कि - "लासानी हूँ मैं"।

आईना देता है उनकी लनतरानी का जवाब॥


पा लिया आपको अब कोई तमन्ना न रही।

बेतलब मुझको जो मिलना था मिला आपसे आप॥


गुम कर दिया है आलमे-हस्ती में होश को।

हर इक से पूछता हूँ कि ‘साहिर’ कहाँ है आज।


दामाने-यार मरके भी छूटा न हाथ से।

उट्ठे हैं ख़ाक होके सरे रहगुज़र से हम॥


सदा-ए-वस्ल बामे-अर्श से आती है कानों में--।

"मुहब्बत के मज़े इस दार पर चढ़कर निकलते हैं"||


क़तरा दरिया है अगर अपनी हक़ीक़त जाने।

खोये जाते हैं जो हम आपको पा जाते हैं॥


कहाँ दैरो-हरम में जलवये-साकी़-ओ-मय बाक़ी?

चलें मयख़ाने में और बैअ़ते-पीरेमुग़ाँ कर लें॥


परेपरवाज़ उनका लायेंगे गर ला-मकाँ भी हो।

तुम्हें हम ढूँढ़ लायेंगे कहीं भी हो, जहाँ भी हो॥


हुस्न क्या हुस्न है जल्वा जिसे दरकार न हो।

यूसफ़ी क्या है जो हंगाम-ए-बाज़ार न हो॥


बेतमन्नाई ने बरहम रंगे-महफ़िल कर दिया।

दिल की बज़्म-आराइयाँ थीं आरज़ू-ए-दिल के साथ॥


अज़ल से दिल है महवेनाज़ वक़्फ़े-ख़ुद-फ़रामोशी।

जो बेख़ुद हो वोह क्या जाने, वफ़ा क्या है, जफ़ा क्या है?


परदा पडा़ हुआ था गफ़लत का चश्मे-दिल पर।

आँखें खुलीं तो देखा आलम में तू-ही-तू है॥


जलव-ए-हक़ नज़र आता है सनम में ‘साहिर’।

है मेरे काबे की तामीर सनम-ख़ानों से॥


हुस्न में और इश्क़ में जब राब्ता क़ायम हुआ।

ग़म बना दिल के लिए और दिल बना मेरे लिए॥


वो भी आलम था कि तू-ही-था और कोई न था।

अब यह कैफ़ियत है मैं-ही-मैं का है सौदा मुझे॥


हुस्न को इश्क़ से बेपरदा बना देते हैं वोह।

वोह जो पिन्दारे-खुदी दिल से मिटा देते हैं॥


खाली हाथ आएंगे और जाएंगे भी खाली हाथ।

मुफ़्त की सर है, क्या लेते हैं, क्या देते हैं।


ज़िंदगी में है मौत का नक्शा।

जिसको हम इन्तज़ार कहते हैं॥


दीदारे-शीशजहत<ref>विश्व के दर्शन</ref> है कोई दीदावर तो हो।

जलवा कहाँ नहीं, कोई अहले-नज़र तो हो॥


हरम है मोमिनों का, बुतपरस्तों का सनमख़ाना।

ख़ुदा-साज़ इक इमारत है मेरे पहलू में जो दिल है॥


चले जो होश से हम बेखुदी की मंज़िल में।

मिला वो ज़ौके-नज़र, पर उधर न देख सके॥


हम है और बेखुदी-ओ-बेख़बरी।

अब न रिन्दी न पारसाई है॥

शब्दार्थ
<references/>