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"जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

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क्या बोलने के योग्य भी अब मैं नहीं लेखी गई?<br>
+
कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी,<br>
ऐसी पहले तो कभी प्रतिकूलता देखी गई!<br>
+
फिर भी मूर्छित अहो वह दू:खिनी विधवा नई,<br>
वे प्रणय-सम्बन्धी तुम्हारे प्रण अनेक नए-नए,<br>
+
कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ,<br>
हे प्राणवल्लभ, आज हा! सहसा समस्त कहाँ गए?<br>
+
हत्चेत होना भी विपद में लाभदायी है महा||<br>
है याद? उस दिन जो गिरा तुमने कही थी मधुमयी,<br>
+
उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ,<br>
जब नेत्र कौतुक से तुम्हारे मूँदकर मैं रह गई |<br>
+
मनो असुर-गन-पीडिता सुरलोक की सुकुमारियाँ,<br>
'यह पाणि-पद्म स्पर्श' मुझसे छिप नहीं सकता कहीं,<br>
+
करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,<br>
फिर इस समय क्या नाथ मेरे हाथ वे ही हैं नहीं?<br>
+
प्रत्यक्ष ही लक्षित हुआ तब दू:ख दुस्सह-सा वहाँ|<br>
एकांत में हँसते हुए सुंदर रदों की पाँति से,<br>
+
विचलित देखा था कभी जिनको किसी ने लोक में,<br>
धर चिबुक मम  रूचि पूछते थे नित्य तुम बहु भाँति से ||<br>
+
वे नृप युधिष्ठिर भी स्वयं रोने लगे इस शोक में|<br>
वह छवि तुम्हारी उस समय की याद आते ही वहीं,<br>
+
गाते हुए अभिमन्यु के गुण भाइयों के संग में,<br>
हे आर्यपुत्र! विदीर्ण होता चित्त जाने क्यों नहीं ||<br>
+
होने लगे वे मग्न-से आपत्ति-सिन्धु-तरंग में||<br>
परिणय-समय मण्डप तले सम्बन्ध दृढ़ता-हित-अहा!<br>
+
"इस अति विनश्वर-विश्व में दुःख-शोक कहते हैं किसे?<br>
ध्रुव देखने को वचन मुझसे नाथ! तुमने था कहा |<br>
+
दुःख भोगकर भी बहुत हमने आज जाना है इसे,<br>
पर विपुल व्रीडा-वश न उसका देखना मैं कह सकी<br>
+
निश्चय हमें जीवन हमारा आज भारी हो गया,<br>
संगति हमारी क्या इसी से ध्रुव न हा! हा! रह सकी?<br>
+
संसार का सब सुख हमारा आज सहसा खो गया|<br>
बहु भाँति सुनकर सु-प्रशंसा और उसमें मन दिए -<br>
+
हा! क्या करें? कैसे रहे? अब तो रहा जाता नहीं,<br>
सुरपुर गए हो नाथ, क्या तुम अप्सराओं के लिए?<br>
+
हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं|<br>
पर जान पड़ती है मुझे यह बात मन में भ्रम-भरी,<br>
+
क्योंकर सहें इस शोक को? या तो सहा जाता नहीं;<br>
मेरे समान मानते थे तुम किसी को सुंदरी ||<br>
+
हे देव, इस दुःख-सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं||<br>
हाँ अप्सराएँ आप तुम पर मर रही होंगी वहाँ,<br>
+
जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,<br>
समता तुम्हारे रूप की त्रैलोक्य में रखी कहाँ?<br>
+
उस राज्य को अब इस भुवन में कौन भोगेगा अहा!<br>
पर प्राप्ति भी उनकी वहाँ भाती नहीं होगी तुम्हें?<br>
+
हे वत्सवर अभिमयु! वह तो था तुम्हारे ही लिए,<br>
क्या याद हम सबकी वहाँ आती नहीं होगी तुम्हें?<br><br>
+
पर हाय! उसकी प्राप्ति के ही समय में तुम चल दिए!<br><br>
 +
 
 +
जितना हमारे चित्त को आनंद था तुमने दिया,<br>
 +
हा! अधिक उससे भी उसे अब शोक से व्याकुल किया|<br>
 +
हे वत्स बोलो तो ज़रा, सम्बन्ध तोड़ कहाँ चले?<br>
 +
इस शोचनीय प्रसंग में तुम संग छोड़ कहाँ चले?<br>
 +
सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया,<br>
 +
फल योग्य ही हे पुत्र! उसका शीघ्र हमने पा लिया||<br>
 +
परिणाम को सोच बिना जो लोग करते काम हैं;<br>
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वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं||<br>
 +
तुमको बिना देखे अहो! अब धैर्य हम कैसे धरें?<br>
 +
कुछ जान पड़ता है नहीं हे वत्स! अब हम क्या करें?<br>
 +
है विरह यह दुस्सह तुम्हारा हम इसे कैसे सहें?<br>
 +
अर्जुन, सुभद्रा, द्रौपदी से हाय! अब हम क्या कहें?"<br>
 +
हैं ध्यान भी जिनका भयंकर जो न जा सकते कहे,<br>
 +
यद्यपि दृढ़-व्रत पाण्डवों ने थे अनेकों दुःख सहे,<br>
 +
पर हो गए वे हीन-से इस दुःख के सम्मुख सभी,<br>
 +
अनुभव बिना जानी जाती बात कोई भी कभी||<br>
 +
यों जान व्याकुल पाण्डवों को व्यास मुनि आए वहाँ -<br>
 +
कहने लगे इस भाँति उनसे वचन मन भाये वहाँ -<br>
 +
" हे धर्मराज! अधीर मत हो, योग्य यह तुमको नहीं,<br>
 +
कहते भले क्या विधि-नियम पर मोह ज्ञानीजन कहीं?"<br>
 +
यों बादरायण के वचन सुन, देखकर उनको तथा,<br>
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कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -<br>
 +
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,<br>
 +
क्या हो गया या हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?<br>
  
यह भुवन ही इन्द्र कानन कर्म वीरों के लिए,<br>
 
कहते सदा तुम तो यही थे - धन्य हूँ मैं हे प्रिये!<br>
 
यह देव दुर्लभ, प्रेममय मुझको मिला प्रिय वर्ग है,<br>
 
मेरे लिए संसार ही नंदन-विपिन है, स्वर्ग है ||<br>
 
जो भूरि-भाग भरी विदित थी निरुपमेय सुहागिनी,<br>
 
हे हृदय्वल्लभ! हूँ वही मैं महा हतभागिनी!<br>
 
जो साथिनी होकर तुम्हारी थी अतीव सनाथिनी,<br>
 
है अब उसी मुझ-सी जगत में और कौन अनाथिनी?<br>
 
हा! जब कभी अवलोक कुछ भी मौन धारे मान से,<br>
 
प्रियतम! मनाते थे जिसे तुम विविध वाक्य-विधान से |<br>
 
विह्वल उसी मुझको अहा! अब देखते तक हो नहीं,<br>
 
यों सर्वदा ही भूल जाना है सुना न गया कहीं ||<br>
 
मैं हूँ वही जिसका हुआ था ग्रंथि-बंधन साथ में,<br>
 
मैं हूँ वही जिसका लिया था हाथ अपने हाथ में;<br>
 
मैं हूँ वही जिसको किया था विधि-विहित अर्द्धांगिनी,<br>
 
भूलो न मुझको नाथ, हूँ मैं अनुचरी चिरसंगिनी ||<br>
 
जो अन्गारागांकित रुचिर सित-सेज पर थी सोहती,<br>
 
शोभा अपार निहार जिसको मैं मुदित हो मोहती,<br>
 
तव मूर्ती क्षत-विक्षत वही निश्चेष्ट अब भू पर पड़ी!<br>
 
बैठी तथा मैं देखती हूँ हाय री छाती कड़ी!<br>
 
हे जीवितेश! उठो, उठो, यह नींद कैसी घोर है,<br>
 
है क्या तुम्हारे योग्य, यह तो भूमि-सेज कठोर है!<br>
 
रख शीश मेरे अंक में जो लेटते थे प्रीति से,<br>
 
यह लेटना अति भिन्न है उस लेटने की रीति से ||<br><br>
 
  
 
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13:37, 20 जुलाई 2009 का अवतरण


कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी,
फिर भी मूर्छित अहो वह दू:खिनी विधवा नई,
कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ,
हत्चेत होना भी विपद में लाभदायी है महा||
उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ,
मनो असुर-गन-पीडिता सुरलोक की सुकुमारियाँ,
करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,
प्रत्यक्ष ही लक्षित हुआ तब दू:ख दुस्सह-सा वहाँ|
विचलित न देखा था कभी जिनको किसी ने लोक में,
वे नृप युधिष्ठिर भी स्वयं रोने लगे इस शोक में|
गाते हुए अभिमन्यु के गुण भाइयों के संग में,
होने लगे वे मग्न-से आपत्ति-सिन्धु-तरंग में||
"इस अति विनश्वर-विश्व में दुःख-शोक कहते हैं किसे?
दुःख भोगकर भी बहुत हमने आज जाना है इसे,
निश्चय हमें जीवन हमारा आज भारी हो गया,
संसार का सब सुख हमारा आज सहसा खो गया|
हा! क्या करें? कैसे रहे? अब तो रहा जाता नहीं,
हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं|
क्योंकर सहें इस शोक को? या तो सहा जाता नहीं;
हे देव, इस दुःख-सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं||
जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,
उस राज्य को अब इस भुवन में कौन भोगेगा अहा!
हे वत्सवर अभिमयु! वह तो था तुम्हारे ही लिए,
पर हाय! उसकी प्राप्ति के ही समय में तुम चल दिए!

जितना हमारे चित्त को आनंद था तुमने दिया,
हा! अधिक उससे भी उसे अब शोक से व्याकुल किया|
हे वत्स बोलो तो ज़रा, सम्बन्ध तोड़ कहाँ चले?
इस शोचनीय प्रसंग में तुम संग छोड़ कहाँ चले?
सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया,
फल योग्य ही हे पुत्र! उसका शीघ्र हमने पा लिया||
परिणाम को सोच बिना जो लोग करते काम हैं;
वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं||
तुमको बिना देखे अहो! अब धैर्य हम कैसे धरें?
कुछ जान पड़ता है नहीं हे वत्स! अब हम क्या करें?
है विरह यह दुस्सह तुम्हारा हम इसे कैसे सहें?
अर्जुन, सुभद्रा, द्रौपदी से हाय! अब हम क्या कहें?"
हैं ध्यान भी जिनका भयंकर जो न जा सकते कहे,
यद्यपि दृढ़-व्रत पाण्डवों ने थे अनेकों दुःख सहे,
पर हो गए वे हीन-से इस दुःख के सम्मुख सभी,
अनुभव बिना जानी न जाती बात कोई भी कभी||
यों जान व्याकुल पाण्डवों को व्यास मुनि आए वहाँ -
कहने लगे इस भाँति उनसे वचन मन भाये वहाँ -
" हे धर्मराज! अधीर मत हो, योग्य यह तुमको नहीं,
कहते भले क्या विधि-नियम पर मोह ज्ञानीजन कहीं?"
यों बादरायण के वचन सुन, देखकर उनको तथा,
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,
क्या हो गया या हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?