भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 58: पंक्ति 58:
 
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -<br>
 
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -<br>
 
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,<br>
 
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,<br>
क्या हो गया यह हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?<br>
+
क्या हो गया यह हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?<br><br>
  
 +
जो सर्वदा ही शून्य लगाती आज हम सबको धरा,<br>
 +
जो नाथ-हीन अनाथ जग में हो गई है उत्तरा|<br>
 +
हूँ हेतु इसका मुख्य मैं ही हा! मुझे धिक्कार है,<br>
 +
मत धर्मराज कहो मुझे, यह क्रूर-जन भू-भार है||<br>
 +
है पुत्र दुर्लभ सर्वथा अभिमन्यु-सा संसार में,<br>
 +
थे सर्व गुण उस धर्मधारी धीर-वीर कुमार में|<br>
 +
वह बाल होकर भी मृदुल, अति प्रौढ़ था निज काम में,<br>
 +
बातें अलौकिक थीं सभी उस दिव्य शोभा-धाम में||<br>
 +
क्या रूप में, क्या शक्ति में, क्या बुद्धि में, क्या ज्ञान में,<br>
 +
गुणवान वैसा अन्य जन आता नहीं है ध्यान में|<br>
 +
पर हाय! केवल रह गई है अब यहाँ उसकी कथा,<br>
 +
धिक्कार है संसार की निस्सारता को सर्वथा||<br>
 +
प्रति दिवस जो इस समय आकर मोदयुत संग्राम से,<br>
 +
करता हृदय मेरा मुदित था भक्ति-युक्त प्रणाम से|<br>
 +
हा! आज वह अभिमन्यु मेरा मृतक भू पर है पड़ा,<br>
 +
होगा कहो मेरे लिए क्या कष्ट अब इससे बड़ा?<br>
 +
करने पड़ेंगे यदपि अब भी काम सब जग में हमें,<br>
 +
चलना पड़ेगा यदपि अब भी विश्व के मग में हमें,<br>
 +
सच जानिए पर अब न होगा हृदय लीन उमंग में,<br>
 +
सुख की सभी बातें गईं सौभद्र के ही संग में||<br>
 +
उस के बिना अब तो हमें कुछ भी सुहाता है नहीं,<br>
 +
हा! क्या करें हा हृदय दुःख से शान्ति पाता है नहीं|<br>
 +
था लोक आलोकित उसी से, अब अँधेरा है हमें,<br>
 +
किस दोष से दुर्दैव ने इस भाँति घेरा है हमें||<br><br>
  
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation

17:52, 20 जुलाई 2009 का अवतरण


कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी,
फिर भी मूर्छित अहो वह दु:खिनी विधवा नई,
कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ,
हतचेत होना भी विपद में लाभदायी है महा||
उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ,
मनो असुर-गण-पीड़िता सुरलोक की सुकुमारियाँ,
करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,
प्रत्यक्ष ही लक्षित हुआ तब दु:ख दुस्सह-सा वहाँ|
विचलित न देखा था कभी जिनको किसी ने लोक में,
वे नृप युधिष्ठिर भी स्वयं रोने लगे इस शोक में|
गाते हुए अभिमन्यु के गुण भाइयों के संग में,
होने लगे वे मग्न-से आपत्ति-सिन्धु-तरंग में||
"इस अति विनश्वर-विश्व में दुःख-शोक कहते हैं किसे?
दुःख भोगकर भी बहुत हमने आज जाना है इसे,
निश्चय हमें जीवन हमारा आज भारी हो गया,
संसार का सब सुख हमारा आज सहसा खो गया|
हा! क्या करें? कैसे रहे? अब तो रहा जाता नहीं,
हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं|
क्योंकर सहें इस शोक को? यह तो सहा जाता नहीं;
हे देव, इस दुःख-सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं||
जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,
उस राज्य को अब इस भुवन में कौन भोगेगा अहा!
हे वत्सवर अभिमयु! वह तो था तुम्हारे ही लिए,
पर हाय! उसकी प्राप्ति के ही समय में तुम चल दिए!

जितना हमारे चित्त को आनंद था तुमने दिया,
हा! अधिक उससे भी उसे अब शोक से व्याकुल किया|
हे वत्स बोलो तो ज़रा, सम्बन्ध तोड़ कहाँ चले?
इस शोचनीय प्रसंग में तुम संग छोड़ कहाँ चले?
सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया,
फल योग्य ही हे पुत्र! उसका शीघ्र हमने पा लिया||
परिणाम को सोच बिना जो लोग करते काम हैं;
वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं||
तुमको बिना देखे अहो! अब धैर्य हम कैसे धरें?
कुछ जान पड़ता है नहीं हे वत्स! अब हम क्या करें?
है विरह यह दुस्सह तुम्हारा हम इसे कैसे सहें?
अर्जुन, सुभद्रा, द्रौपदी से हाय! अब हम क्या कहें?"
हैं ध्यान भी जिनका भयंकर जो न जा सकते कहे,
यद्यपि दृढ़-व्रत पाण्डवों ने थे अनेकों दुःख सहे,
पर हो गए वे हीन-से इस दुःख के सम्मुख सभी,
अनुभव बिना जानी न जाती बात कोई भी कभी||
यों जान व्याकुल पाण्डवों को व्यास मुनि आए वहाँ -
कहने लगे इस भाँति उनसे वचन मन भाये वहाँ -
"हे धर्मराज! अधीर मत हो, योग्य यह तुमको नहीं,
कहते भले क्या विधि-नियम पर मोह ज्ञानीजन कहीं?"
यों बादरायण के वचन सुन, देखकर उनको तथा,
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,
क्या हो गया यह हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?

जो सर्वदा ही शून्य लगाती आज हम सबको धरा,
जो नाथ-हीन अनाथ जग में हो गई है उत्तरा|
हूँ हेतु इसका मुख्य मैं ही हा! मुझे धिक्कार है,
मत धर्मराज कहो मुझे, यह क्रूर-जन भू-भार है||
है पुत्र दुर्लभ सर्वथा अभिमन्यु-सा संसार में,
थे सर्व गुण उस धर्मधारी धीर-वीर कुमार में|
वह बाल होकर भी मृदुल, अति प्रौढ़ था निज काम में,
बातें अलौकिक थीं सभी उस दिव्य शोभा-धाम में||
क्या रूप में, क्या शक्ति में, क्या बुद्धि में, क्या ज्ञान में,
गुणवान वैसा अन्य जन आता नहीं है ध्यान में|
पर हाय! केवल रह गई है अब यहाँ उसकी कथा,
धिक्कार है संसार की निस्सारता को सर्वथा||
प्रति दिवस जो इस समय आकर मोदयुत संग्राम से,
करता हृदय मेरा मुदित था भक्ति-युक्त प्रणाम से|
हा! आज वह अभिमन्यु मेरा मृतक भू पर है पड़ा,
होगा कहो मेरे लिए क्या कष्ट अब इससे बड़ा?
करने पड़ेंगे यदपि अब भी काम सब जग में हमें,
चलना पड़ेगा यदपि अब भी विश्व के मग में हमें,
सच जानिए पर अब न होगा हृदय लीन उमंग में,
सुख की सभी बातें गईं सौभद्र के ही संग में||
उस के बिना अब तो हमें कुछ भी सुहाता है नहीं,
हा! क्या करें हा हृदय दुःख से शान्ति पाता है नहीं|
था लोक आलोकित उसी से, अब अँधेरा है हमें,
किस दोष से दुर्दैव ने इस भाँति घेरा है हमें||