भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कोई तो पीके निकलेगा... / आसी ग़ाज़ीपुरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
  
<poem>कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से।
+
<poem>
 
+
कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से।
 
दरे-पीरेमुग़ाँ पर मैपरस्ती चलके बिस्तर हो॥
 
दरे-पीरेमुग़ाँ पर मैपरस्ती चलके बिस्तर हो॥
 
  
 
किसी के दरपै ‘आसी’ रात रो-रोके यह कहता था--
 
किसी के दरपै ‘आसी’ रात रो-रोके यह कहता था--
 
 
कि "आखि़र मैं तुम्हारा बन्दा हूँ, तुम बन्दापरवर हो"॥
 
कि "आखि़र मैं तुम्हारा बन्दा हूँ, तुम बन्दापरवर हो"॥
  
 
+
             ००००
             ****
+
 
+
  
 
तुम्हीं सच-सच बता दो कौन था शिरीं की सूरत में।
 
तुम्हीं सच-सच बता दो कौन था शिरीं की सूरत में।
 
 
कि मुश्तेख़ाक की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो॥
 
कि मुश्तेख़ाक की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो॥
 
 
  
 
टुकडे़ होकर जो मिली, कोहकनो-मजनूँ को।
 
टुकडे़ होकर जो मिली, कोहकनो-मजनूँ को।
 
 
कहीं मेरी ही वो फूटी हुई तक़दीर न हो॥
 
कहीं मेरी ही वो फूटी हुई तक़दीर न हो॥
 
</poem>
 
</poem>

18:58, 20 जुलाई 2009 का अवतरण

कोई तो पीके निकलेगा, उडे़गी कुछ तो बू मुँह से।
दरे-पीरेमुग़ाँ पर मैपरस्ती चलके बिस्तर हो॥

किसी के दरपै ‘आसी’ रात रो-रोके यह कहता था--
कि "आखि़र मैं तुम्हारा बन्दा हूँ, तुम बन्दापरवर हो"॥

            ००००

तुम्हीं सच-सच बता दो कौन था शिरीं की सूरत में।
कि मुश्तेख़ाक की हसरत में कोई कोहकन क्यों हो॥

टुकडे़ होकर जो मिली, कोहकनो-मजनूँ को।
कहीं मेरी ही वो फूटी हुई तक़दीर न हो॥