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"जयद्रथ-वध / द्वितीय सर्ग / भाग २ / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

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तुम धर्मराज समीप रथ को शीघ्रता से ले चलो,<br>
 
तुम धर्मराज समीप रथ को शीघ्रता से ले चलो,<br>
 
भगवान! मेरे शत्रुओं की सब दुराशाएँ डालो??"<br><br>
 
भगवान! मेरे शत्रुओं की सब दुराशाएँ डालो??"<br><br>
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बहु भाँति तब सर्वग्य हरि ने शीघ्र समझाया उन्हें,<br>
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सुनकर मधुर उनके वचन संतोष कुछ आया उन्हें|<br>
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पर स्वजन चिंता-रज्जु बंधन है कदापि न टूटता,<br>
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जो भाव जम जाता हृदय में वह न सहसा छूटता||<br>
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करते हुए निज चित्त में नाना विचार नए-नए,<br>
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निज भाइयों के पास आतुर आर्त अर्जुन आ गए|<br>
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तप-तप्त तरुओं के सदृश तब देख कर तापित उन्हें,<br>
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आकुल हुए वे और भी कर कुशल विज्ञापित उन्हें||<br>
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अवलोकते ही हरि-सहित अपने समक्ष उन्हें खड़े,<br>
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फिर धर्मराज विषाद से विचलित उसी क्षण हो पड़े|<br>
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वे यत्न से रोके हुए शोकाश्रु फिर गिरने लगे,<br>
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फिर दुःख के वे दृश्य उनकी दृष्टि में फिरने लगे||<br>
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कहते हुए कारुण्य-वाणी दीन हो उस काल में,<br>
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देखे गए इस भाँति वे जलते हुए दुःख ज्वाल में|<br>
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व्याकुल हुए खग-वृन्द के चीत्कार से पूरित सभी -<br>
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दावाग्नि-कवलित वृक्ष ज्यों देता दिखाई है कभी||<br>
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"हे हे जनार्दन! आपने यह क्या दिखाया है हमें?<br>
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हे देव! किस दुर्भाग्य से यह दुःख आया हैं हमें?<br>
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हा आपके रहते हुए भी आज यह क्या हो गया?<br>
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अभिमन्यु रुपी रत्न जो सहसा हमारा खो गया||<br>
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निज राज्य लेने से हमें हे तात! अब क्या काम है?<br>
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होता अहो! फिर व्यर्थ ही क्यों यह महा-संग्राम है!<br>
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क्या यह हमारी हानि भारी, राज्य से मिट जाएगी?<br>
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त्रैलोक्य की भी सम्पदा उस रत्ना को क्या पाएगी?<br><br>
  
  

23:34, 20 जुलाई 2009 का अवतरण


कहती हुई बहु भाँति यों ही भारती करुणामयी,
फिर भी मूर्छित अहो वह दु:खिनी विधवा नई,
कुछ देर को फिर शोक उसका सो गया मानो वहाँ,
हतचेत होना भी विपद में लाभदायी है महा॥
उस समय ही कृष्णा, सुभद्रा आदि पाण्डव-नारियाँ,
मनो असुर-गण-पीड़िता सुरलोक की सुकुमारियाँ,
करती हुईं बहु भाँति क्रंदन आ गईं सहसा वहाँ,
प्रत्यक्ष ही लक्षित हुआ तब दु:ख दुस्सह-सा वहाँ|
विचलित न देखा था कभी जिनको किसी ने लोक में,
वे नृप युधिष्ठिर भी स्वयं रोने लगे इस शोक में|
गाते हुए अभिमन्यु के गुण भाइयों के संग में,
होने लगे वे मग्न-से आपत्ति-सिन्धु-तरंग में||
"इस अति विनश्वर-विश्व में दुःख-शोक कहते हैं किसे?
दुःख भोगकर भी बहुत हमने आज जाना है इसे,
निश्चय हमें जीवन हमारा आज भारी हो गया,
संसार का सब सुख हमारा आज सहसा खो गया|
हा! क्या करें? कैसे रहे? अब तो रहा जाता नहीं,
हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं|
क्योंकर सहें इस शोक को? यह तो सहा जाता नहीं;
हे देव, इस दुःख-सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं||
जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,
उस राज्य को अब इस भुवन में कौन भोगेगा अहा!
हे वत्सवर अभिमयु! वह तो था तुम्हारे ही लिए,
पर हाय! उसकी प्राप्ति के ही समय में तुम चल दिए!

जितना हमारे चित्त को आनंद था तुमने दिया,
हा! अधिक उससे भी उसे अब शोक से व्याकुल किया|
हे वत्स बोलो तो ज़रा, सम्बन्ध तोड़ कहाँ चले?
इस शोचनीय प्रसंग में तुम संग छोड़ कहाँ चले?
सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया,
फल योग्य ही हे पुत्र! उसका शीघ्र हमने पा लिया||
परिणाम को सोच बिना जो लोग करते काम हैं;
वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं||
तुमको बिना देखे अहो! अब धैर्य हम कैसे धरें?
कुछ जान पड़ता है नहीं हे वत्स! अब हम क्या करें?
है विरह यह दुस्सह तुम्हारा हम इसे कैसे सहें?
अर्जुन, सुभद्रा, द्रौपदी से हाय! अब हम क्या कहें?"
हैं ध्यान भी जिनका भयंकर जो न जा सकते कहे,
यद्यपि दृढ़-व्रत पाण्डवों ने थे अनेकों दुःख सहे,
पर हो गए वे हीन-से इस दुःख के सम्मुख सभी,
अनुभव बिना जानी न जाती बात कोई भी कभी||
यों जान व्याकुल पाण्डवों को व्यास मुनि आए वहाँ -
कहने लगे इस भाँति उनसे वचन मन भाये वहाँ -
"हे धर्मराज! अधीर मत हो, योग्य यह तुमको नहीं,
कहते भले क्या विधि-नियम पर मोह ज्ञानीजन कहीं?"
यों बादरायण के वचन सुन, देखकर उनको तथा,
कहने लगे उनसे युधिष्ठिर और भी पाकर व्यथा -
"धीरज धरूँ हे तात कैसे? जल रहा मेरा हिया,
क्या हो गया यह हाय! सहसा दैव ने यह क्या किया?

जो सर्वदा ही शून्य लगाती आज हम सबको धरा,
जो नाथ-हीन अनाथ जग में हो गई है उत्तरा|
हूँ हेतु इसका मुख्य मैं ही हा! मुझे धिक्कार है,
मत धर्मराज कहो मुझे, यह क्रूर-जन भू-भार है||
है पुत्र दुर्लभ सर्वथा अभिमन्यु-सा संसार में,
थे सर्व गुण उस धर्मधारी धीर-वीर कुमार में|
वह बाल होकर भी मृदुल, अति प्रौढ़ था निज काम में,
बातें अलौकिक थीं सभी उस दिव्य शोभा-धाम में||
क्या रूप में, क्या शक्ति में, क्या बुद्धि में, क्या ज्ञान में,
गुणवान वैसा अन्य जन आता नहीं है ध्यान में|
पर हाय! केवल रह गई है अब यहाँ उसकी कथा,
धिक्कार है संसार की निस्सारता को सर्वथा||
प्रति दिवस जो इस समय आकर मोदयुत संग्राम से,
करता हृदय मेरा मुदित था भक्ति-युक्त प्रणाम से|
हा! आज वह अभिमन्यु मेरा मृतक भू पर है पड़ा,
होगा कहो मेरे लिए क्या कष्ट अब इससे बड़ा?
करने पड़ेंगे यदपि अब भी काम सब जग में हमें,
चलना पड़ेगा यदपि अब भी विश्व के मग में हमें,
सच जानिए पर अब न होगा हृदय लीन उमंग में,
सुख की सभी बातें गईं सौभद्र के ही संग में||
उस के बिना अब तो हमें कुछ भी सुहाता है नहीं,
हा! क्या करें हा हृदय दुःख से शान्ति पाता है नहीं|
था लोक आलोकित उसी से, अब अँधेरा है हमें,
किस दोष से दुर्दैव ने इस भाँति घेरा है हमें||

अब भी मनोरम मूर्ति उसकी फिर रही है सामने,
पर साथ ही दुःख की घटा भी घिर रही है सामने,
हम देखते हैं प्रकट उसको किंतु पाते हैं नहीं,
हा! स्वप्न के वैभव किसी के काम आते हैं नहीं||
कैसी हुई होगी अहो! उसकी दशा उस काल में -
जब वह फँसा होगा अकेला शत्रुओं के जाल में?
बस वचन ये उसने कहे थे अंत में दुःख से भरे -
"निरुपाय तब अभिमन्यु यह अन्याय से मरता हरे! -
कहकर वचन कौन्तेय यों फिर मौन दुःख से हो गए,
दृग-नीर से तत्काल युग्म कपोल उनके धो गए|
तब व्यास मुनि ने फिर उन्हें धीरज बँधाया युक्ति से,
आख्यान समयोचित सुनाये विविध उत्तम युक्ति से|
उस समय ही ससप्तकों को युद्ध में संहार के,
लौटे धनञ्जय विजय का आनंद उर में धार के|
होने लगे पर मार्ग में अपशकुन बहु बिध जब उन्हें,
खलने लगी अति चित्त में चिंता कुशल की तब उन्हें||
कुविचार बारम्बार उनके चित्त में आने लगे,
आनंद और प्रसन्नता के भाव सब जाने लगे|
तब व्यग्र होकर वचन वे कहने लगे भगवान से,
होगी न आतुरता किसे आपत्ति के अनुमान से?
"हे मित्र? मेरा मन न जाने हो रहा क्यों व्यस्त है?
इस समय पल पल में मुझे अपशकुन करता त्रस्त है|
तुम धर्मराज समीप रथ को शीघ्रता से ले चलो,
भगवान! मेरे शत्रुओं की सब दुराशाएँ डालो??"

बहु भाँति तब सर्वग्य हरि ने शीघ्र समझाया उन्हें,
सुनकर मधुर उनके वचन संतोष कुछ आया उन्हें|
पर स्वजन चिंता-रज्जु बंधन है कदापि न टूटता,
जो भाव जम जाता हृदय में वह न सहसा छूटता||
करते हुए निज चित्त में नाना विचार नए-नए,
निज भाइयों के पास आतुर आर्त अर्जुन आ गए|
तप-तप्त तरुओं के सदृश तब देख कर तापित उन्हें,
आकुल हुए वे और भी कर कुशल विज्ञापित उन्हें||
अवलोकते ही हरि-सहित अपने समक्ष उन्हें खड़े,
फिर धर्मराज विषाद से विचलित उसी क्षण हो पड़े|
वे यत्न से रोके हुए शोकाश्रु फिर गिरने लगे,
फिर दुःख के वे दृश्य उनकी दृष्टि में फिरने लगे||
कहते हुए कारुण्य-वाणी दीन हो उस काल में,
देखे गए इस भाँति वे जलते हुए दुःख ज्वाल में|
व्याकुल हुए खग-वृन्द के चीत्कार से पूरित सभी -
दावाग्नि-कवलित वृक्ष ज्यों देता दिखाई है कभी||
"हे हे जनार्दन! आपने यह क्या दिखाया है हमें?
हे देव! किस दुर्भाग्य से यह दुःख आया हैं हमें?
हा आपके रहते हुए भी आज यह क्या हो गया?
अभिमन्यु रुपी रत्न जो सहसा हमारा खो गया||
निज राज्य लेने से हमें हे तात! अब क्या काम है?
होता अहो! फिर व्यर्थ ही क्यों यह महा-संग्राम है!
क्या यह हमारी हानि भारी, राज्य से मिट जाएगी?
त्रैलोक्य की भी सम्पदा उस रत्ना को क्या पाएगी?