"बनारस से निकला हुआ आदमी / शिरीष कुमार मौर्य" के अवतरणों में अंतर
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जनवरी की उफनती पूरबी धुंध | जनवरी की उफनती पूरबी धुंध | ||
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और गंगातट से अनवरत उठते उस थोड़े से धुँए के बीच | और गंगातट से अनवरत उठते उस थोड़े से धुँए के बीच | ||
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मैं आया इस शहर में | मैं आया इस शहर में | ||
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जहाँ आने का मुझे बरसो से | जहाँ आने का मुझे बरसो से | ||
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इन्तज़ार था | इन्तज़ार था | ||
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किसी भी दूसरे बड़े शहर की तरह | किसी भी दूसरे बड़े शहर की तरह | ||
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यहाँ भी | यहाँ भी | ||
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बहुत तेज़ भागती थी सड़कें | बहुत तेज़ भागती थी सड़कें | ||
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लेकिन रिक्शों, टैम्पू या मोटरसाइकिल-स्कूटरवालों में बवाल हो जाने पर | लेकिन रिक्शों, टैम्पू या मोटरसाइकिल-स्कूटरवालों में बवाल हो जाने पर | ||
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रह-रहकर | रह-रहकर | ||
− | |||
रूकने-थमने भी लगती थी | रूकने-थमने भी लगती थी | ||
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मुझे जाना था लंका और उससे भी आगे | मुझे जाना था लंका और उससे भी आगे | ||
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सामने घाट | सामने घाट | ||
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महेशनगर पश्चिम तक | महेशनगर पश्चिम तक | ||
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मैं पहली बार शहर आए | मैं पहली बार शहर आए | ||
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किसी गँवई किसान-सा निहारता था | किसी गँवई किसान-सा निहारता था | ||
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चीज़ों को | चीज़ों को | ||
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अलबत्ता मैंने देखे थे कई शहर | अलबत्ता मैंने देखे थे कई शहर | ||
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किसान भी कभी नहीं था | किसान भी कभी नहीं था | ||
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और रहा गँवई होना - | और रहा गँवई होना - | ||
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तो उसके बारे में खुद ही बता पाना | तो उसके बारे में खुद ही बता पाना | ||
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कतई मुमकिन नहीं | कतई मुमकिन नहीं | ||
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किसी भी कवि के लिए | किसी भी कवि के लिए | ||
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स्टेशन छोड़ते ही यह शुरू हो जाता था | स्टेशन छोड़ते ही यह शुरू हो जाता था | ||
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जिसे हम बनारस कहते हैं | जिसे हम बनारस कहते हैं | ||
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बहुत प्राचीन-सी दिखती कुछ इमारतों के बीच | बहुत प्राचीन-सी दिखती कुछ इमारतों के बीच | ||
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अचानक ही | अचानक ही | ||
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निकल आती थी | निकल आती थी | ||
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रिलायंस वेब वर्ल्ड जैसी कोई अपरिचित परालौकिक दुनिया | रिलायंस वेब वर्ल्ड जैसी कोई अपरिचित परालौकिक दुनिया | ||
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मैंने नहीं पढ़े थे शास्त्र | मैंने नहीं पढ़े थे शास्त्र | ||
− | |||
लेकिन उनकी बहुश्रुत धारणा के मुताबिक | लेकिन उनकी बहुश्रुत धारणा के मुताबिक | ||
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यह शहर पहले ही | यह शहर पहले ही | ||
− | |||
परलोक की राह पर था | परलोक की राह पर था | ||
− | |||
जिसे सुधारने न जाने कहाँ से भटकते आते थे साधू-सन्यासी | जिसे सुधारने न जाने कहाँ से भटकते आते थे साधू-सन्यासी | ||
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औरतें रोती-कलपती | औरतें रोती-कलपती | ||
− | |||
अपना वैधव्य काटने | अपना वैधव्य काटने | ||
− | |||
बाद में विदेशी भी आने लगे बेहिसाब | बाद में विदेशी भी आने लगे बेहिसाब | ||
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इस लोक के सीमान्त पर बसे | इस लोक के सीमान्त पर बसे | ||
− | |||
अपनी तरह के | अपनी तरह के | ||
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एक अकेले | एक अकेले | ||
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अलबेले शहर को जानने | अलबेले शहर को जानने | ||
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लेकिन | लेकिन | ||
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मैं इसलिए नहीं आया था यहाँ | मैं इसलिए नहीं आया था यहाँ | ||
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मुझे कुछ लोगों से मिलना था | मुझे कुछ लोगों से मिलना था | ||
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देखनी थीं | देखनी थीं | ||
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कुछ जगहें भी | कुछ जगहें भी | ||
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लेकिन मुक्ति के लिए नहीं | लेकिन मुक्ति के लिए नहीं | ||
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बँध जाने के लिए | बँध जाने के लिए | ||
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खोजनी थीं कुछ राहें | खोजनी थीं कुछ राहें | ||
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बचपन की | बचपन की | ||
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बरसों की ओट में छुपी | बरसों की ओट में छुपी | ||
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भूली-बिसरी गलियों में कहीं | भूली-बिसरी गलियों में कहीं | ||
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कोई दुनिया थी | कोई दुनिया थी | ||
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जो अब तलक मेरी थी | जो अब तलक मेरी थी | ||
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नानूकानू बाबा की मढ़िया | नानूकानू बाबा की मढ़िया | ||
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और उसके तले | और उसके तले | ||
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मंत्र से कोयल को मार गिराते एक तांत्रिक की | मंत्र से कोयल को मार गिराते एक तांत्रिक की | ||
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धुंधली-सी याद भी | धुंधली-सी याद भी | ||
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रास्तो पर उठते कोलाहल से कम नहीं थी | रास्तो पर उठते कोलाहल से कम नहीं थी | ||
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पता नहीं क्या कहेंगे इसे | पता नहीं क्या कहेंगे इसे | ||
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पर पहँचते ही जाना था हरिश्चंद्र घाट | पर पहँचते ही जाना था हरिश्चंद्र घाट | ||
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मेरे काँधों पर अपनी दादी के बाद | मेरे काँधों पर अपनी दादी के बाद | ||
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यह दूसरी देह | यह दूसरी देह | ||
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वाचस्पति जी की माँ की थी | वाचस्पति जी की माँ की थी | ||
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बहुत हल्की | बहुत हल्की | ||
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बहुत कोमल | बहुत कोमल | ||
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वह शायद भीतर का संताप था | वह शायद भीतर का संताप था | ||
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जो पड़ता था भारी | जो पड़ता था भारी | ||
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दिल में उठती कोई मसोस | दिल में उठती कोई मसोस | ||
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घाट पर सर्वत्र मँडराते थे डोम | घाट पर सर्वत्र मँडराते थे डोम | ||
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शास्त्रों की दुहाई देते एक व्यक्ति से | शास्त्रों की दुहाई देते एक व्यक्ति से | ||
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पैसों के लिए झगड़ते हुए कहा एक काले-मलंग डोम ने- | पैसों के लिए झगड़ते हुए कहा एक काले-मलंग डोम ने- | ||
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'किसी हरिश्चंद्र के बाप का नहीं | 'किसी हरिश्चंद्र के बाप का नहीं | ||
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कल्लू डोम का है ये घाट!' | कल्लू डोम का है ये घाट!' | ||
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उनके बालक | उनके बालक | ||
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लम्बे और रूखे बालों वाले | लम्बे और रूखे बालों वाले | ||
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जैसे पुराणों से निकलकर उड़ाते पतंग | जैसे पुराणों से निकलकर उड़ाते पतंग | ||
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और लपकने को उन्हें | और लपकने को उन्हें | ||
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उलाँघते चले जाते | उलाँघते चले जाते | ||
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तुरन्त की बुझी चिताओं को भी | तुरन्त की बुझी चिताओं को भी | ||
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आसमान में | आसमान में | ||
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धुँए और गंध के साथ | धुँए और गंध के साथ | ||
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उनका यह | उनका यह | ||
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अलिखित उत्साह भी था | अलिखित उत्साह भी था | ||
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पानी बहुत मैला | पानी बहुत मैला | ||
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लगभग मरी हुई गंगा का | लगभग मरी हुई गंगा का | ||
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उसमें भी गुड़प-गुड़प डुबकी लगाते कछुए | उसमें भी गुड़प-गुड़प डुबकी लगाते कछुए | ||
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जिनके लिए फेंका जाता शव का | जिनके लिए फेंका जाता शव का | ||
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कोई एक अधजला हिस्सा | कोई एक अधजला हिस्सा | ||
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शवयात्रा के अगुआ | शवयात्रा के अगुआ | ||
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डॉ0 गया सिंह पर नहीं चलता था रौब | डॉ0 गया सिंह पर नहीं चलता था रौब | ||
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किसी भी डोम का | किसी भी डोम का | ||
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कीनाराम सम्प्रदाय के वे कुशल अध्येता | कीनाराम सम्प्रदाय के वे कुशल अध्येता | ||
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गालियों से नवाज़ते उन्हें | गालियों से नवाज़ते उन्हें | ||
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लगभग समाधिष्ठ से थे | लगभग समाधिष्ठ से थे | ||
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लगातार आते अंग्रेज़ | लगातार आते अंग्रेज़ | ||
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तरह-तरह के कैमरे सम्भाले | तरह-तरह के कैमरे सम्भाले | ||
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देखते हिन्दुओं के इस आख़िरी सलाम को | देखते हिन्दुओं के इस आख़िरी सलाम को | ||
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उनकी औरतें भी लगभग नंगी | उनकी औरतें भी लगभग नंगी | ||
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जिन्हें इस अवस्था में अपने बीच पाकर | जिन्हें इस अवस्था में अपने बीच पाकर | ||
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किशोर और युवतर डोमों की जाँघों में | किशोर और युवतर डोमों की जाँघों में | ||
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रह-रहकर | रह-रहकर | ||
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एक हर्षपूर्ण खुजली-सी उठती थी | एक हर्षपूर्ण खुजली-सी उठती थी | ||
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खुजाते उसे वे | खुजाते उसे वे | ||
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अचम्भित से लुंगी में हाथ डाल | अचम्भित से लुंगी में हाथ डाल | ||
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टकटकी बाँधे | टकटकी बाँधे | ||
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मानो ऑंखो ही ऑंखों में कहते | मानो ऑंखो ही ऑंखों में कहते | ||
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उनसे - | उनसे - | ||
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हमारी मजबूरी है यह | हमारी मजबूरी है यह | ||
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कृपया इस कार्य-व्यापार का कोई | कृपया इस कार्य-व्यापार का कोई | ||
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अनुचित | अनुचित | ||
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या अश्लील अर्थ न लगाएँ | या अश्लील अर्थ न लगाएँ | ||
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गहराती शाम में आए काशीनाथ जी | गहराती शाम में आए काशीनाथ जी | ||
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शोकमग्न | शोकमग्न | ||
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घाट पर उन्हें पा घुटने छूने को लपके बी0एच0यू0 के | घाट पर उन्हें पा घुटने छूने को लपके बी0एच0यू0 के | ||
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दो नवनियुक्त प्राध्यापक | दो नवनियुक्त प्राध्यापक | ||
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जिन्हें अपने निकटतम भावबोध में | जिन्हें अपने निकटतम भावबोध में | ||
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अगल-बगल लिए | अगल-बगल लिए | ||
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वे एक बैंच पर विराजे | वे एक बैंच पर विराजे | ||
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'यह शिरीष आया है रानीखेत से' - कहा वाचस्पति जी ने | 'यह शिरीष आया है रानीखेत से' - कहा वाचस्पति जी ने | ||
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पर शायद | पर शायद | ||
− | |||
दूर से आए किसी भी व्यक्ति से मिल पाने की | दूर से आए किसी भी व्यक्ति से मिल पाने की | ||
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फुर्सत ही नहीं थी उनके पास | फुर्सत ही नहीं थी उनके पास | ||
− | |||
उस शाम एक बार मेरी तरफ अपनी ऑंखें चमका | उस शाम एक बार मेरी तरफ अपनी ऑंखें चमका | ||
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वे पुन: कर्म में लीन हुए | वे पुन: कर्म में लीन हुए | ||
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मैं निहारने लगा गंगा के उस पार | मैं निहारने लगा गंगा के उस पार | ||
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रेती पर कंडे सुलगाए खाना पकाता था कोई | रेती पर कंडे सुलगाए खाना पकाता था कोई | ||
− | |||
इस तरफ लगातार जल रहे शवों से | इस तरफ लगातार जल रहे शवों से | ||
− | |||
बेपरवाह | बेपरवाह | ||
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रात हम लौटे अस्सी-भदैनी से गुज़रते | रात हम लौटे अस्सी-भदैनी से गुज़रते | ||
− | |||
और हमने पोई के यहाँ चाय पीना तय किया | और हमने पोई के यहाँ चाय पीना तय किया | ||
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लेकिन कुछ देर पहले तक | लेकिन कुछ देर पहले तक | ||
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वह भी हमारे साथ घाट पर ही था | वह भी हमारे साथ घाट पर ही था | ||
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और अभी खोल नहीं पाया था | और अभी खोल नहीं पाया था | ||
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अपनी दुकान | अपनी दुकान | ||
− | |||
पोई - उसी केदार का बेटा | पोई - उसी केदार का बेटा | ||
− | |||
बरसों रहा जिसका रिश्ता राजनीति और साहित्य के संसार से | बरसों रहा जिसका रिश्ता राजनीति और साहित्य के संसार से | ||
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सुना कई बरस पहले | सुना कई बरस पहले | ||
− | |||
गरबीली गरीबी के दौरान नामवर जी के कुर्ते की जेब में | गरबीली गरीबी के दौरान नामवर जी के कुर्ते की जेब में | ||
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अकसर ही | अकसर ही | ||
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कुछ पैसे डाल दिया करता था | कुछ पैसे डाल दिया करता था | ||
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रात चढ़ी चली आती थी | रात चढ़ी चली आती थी | ||
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बहुत रौशन | बहुत रौशन | ||
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लेकिन बेरतरतीब-सा दीखता था लंका | लेकिन बेरतरतीब-सा दीखता था लंका | ||
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सबसे ज्यादा चहल-पहल शाकाहारी भोजनालयों में थी | सबसे ज्यादा चहल-पहल शाकाहारी भोजनालयों में थी | ||
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चौराहे पर खड़ी मूर्ति मालवीय जी की | चौराहे पर खड़ी मूर्ति मालवीय जी की | ||
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गुज़रे बरसों की गर्द से ढँकी | गुज़रे बरसों की गर्द से ढँकी | ||
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उसी के पास एक ठेला | उसी के पास एक ठेला | ||
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तली हुई मछली-मुर्गे-अंडे इत्यादि के सुस्वादु भार से शोभित | तली हुई मछली-मुर्गे-अंडे इत्यादि के सुस्वादु भार से शोभित | ||
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जहाँ लड़खड़ाते कदम बढ़ते कुछ नौजवान | जहाँ लड़खड़ाते कदम बढ़ते कुछ नौजवान | ||
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ठीक सामने | ठीक सामने | ||
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विराट द्वार 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' का | विराट द्वार 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' का | ||
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... | ... | ||
अजीब थी आधी रात की नीरवता | अजीब थी आधी रात की नीरवता | ||
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घर से कुछ दूर गंगा में डुबकी लगातीं शिशुमार | घर से कुछ दूर गंगा में डुबकी लगातीं शिशुमार | ||
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मछलियाँ सोतीं | मछलियाँ सोतीं | ||
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एक सावधान डूबती-उतराती नींद | एक सावधान डूबती-उतराती नींद | ||
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तल पर पाँव टिकाए पड़ें हों शायद कछुए भी | तल पर पाँव टिकाए पड़ें हों शायद कछुए भी | ||
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शहर नदी की तलछट में भी कहीं साफ़ चमकता था | शहर नदी की तलछट में भी कहीं साफ़ चमकता था | ||
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तब भी | तब भी | ||
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हमारी पलकों के भीतर नींद से ज्यादा धुँआ था | हमारी पलकों के भीतर नींद से ज्यादा धुँआ था | ||
− | |||
फेफड़ों में हवा से ज्यादा | फेफड़ों में हवा से ज्यादा | ||
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एक गंध | एक गंध | ||
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बहुत ज़ोर से साँस भी नहीं ले सकते थे हम | बहुत ज़ोर से साँस भी नहीं ले सकते थे हम | ||
− | |||
अभी इस घर से कोई गया था | अभी इस घर से कोई गया था | ||
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अभी इस घर में उसके जाने से अधिक | अभी इस घर में उसके जाने से अधिक | ||
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उसके होने का अहसास था | उसके होने का अहसास था | ||
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रसोई में पड़े बर्तनों के बीच शायद कुलबुला रहे थे | रसोई में पड़े बर्तनों के बीच शायद कुलबुला रहे थे | ||
− | |||
चूहे | चूहे | ||
− | |||
खाना नहीं पका था इस रात | खाना नहीं पका था इस रात | ||
− | |||
और उनका उपवास था | और उनका उपवास था | ||
− | |||
... | ... | ||
सुबह आयी तो जैसे सब कुछ धोते हुए | सुबह आयी तो जैसे सब कुछ धोते हुए | ||
− | |||
क्या इसी को कहते हैं | क्या इसी को कहते हैं | ||
− | |||
सुबहे-बनारस ? | सुबहे-बनारस ? | ||
− | |||
क्या रोज़ यह आती है ऐसे ही? | क्या रोज़ यह आती है ऐसे ही? | ||
− | |||
गंगा के पानी से उठती भाप | गंगा के पानी से उठती भाप | ||
− | |||
बदलती हुई घने कुहरे में | बदलती हुई घने कुहरे में | ||
− | |||
कहीं से भटकता आता आरती का स्वर | कहीं से भटकता आता आरती का स्वर | ||
− | |||
कुछ भैंसें बहुत गदराए काले शरीर वाली | कुछ भैंसें बहुत गदराए काले शरीर वाली | ||
− | |||
धीरे से पैठ जातीं | धीरे से पैठ जातीं | ||
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सुबह 6 बजे के शीतल पानी में | सुबह 6 बजे के शीतल पानी में | ||
− | |||
हले!हले! करते पुकारते उन्हें उनके ग्वाले | हले!हले! करते पुकारते उन्हें उनके ग्वाले | ||
− | |||
कुछ सूअर भी गली के कीच में लोट लगाते | कुछ सूअर भी गली के कीच में लोट लगाते | ||
− | |||
छोड़ते थूथन से अपनी | छोड़ते थूथन से अपनी | ||
− | |||
गजब उसाँसे | गजब उसाँसे | ||
− | |||
जो बिल्कुल हमारे मुँह से निकलती भाप सरीखी ही | जो बिल्कुल हमारे मुँह से निकलती भाप सरीखी ही | ||
− | |||
दिखती थीं | दिखती थीं | ||
− | |||
साइकिल पर जाते बलराज पांडे | साइकिल पर जाते बलराज पांडे | ||
− | |||
रीडर हिन्दी बी.एच.यू. | रीडर हिन्दी बी.एच.यू. | ||
− | |||
सड़क के पास अचानक ही दिखता | सड़क के पास अचानक ही दिखता | ||
− | |||
किसी अचरज-सा एक पेड़ | किसी अचरज-सा एक पेड़ | ||
− | |||
बादाम का | बादाम का | ||
− | |||
एक बच्चा लपकता जाता लेने | एक बच्चा लपकता जाता लेने | ||
− | |||
कुरकुरी जलेबी | कुरकुरी जलेबी | ||
− | |||
एक लौटता चाशनी से तर पौलीथीन लटकाए | एक लौटता चाशनी से तर पौलीथीन लटकाए | ||
− | |||
अभी पान का वक्त नहीं पर | अभी पान का वक्त नहीं पर | ||
− | |||
दुकान साफ कर अगरबत्ताी जलाने में लीन | दुकान साफ कर अगरबत्ताी जलाने में लीन | ||
− | |||
झब्बर मूँछोंवाला दुकानदार भी | झब्बर मूँछोंवाला दुकानदार भी | ||
− | |||
यह धरती पर भोर का उतरना है | यह धरती पर भोर का उतरना है | ||
− | |||
इस तरह कि बहुत हल्के से हट जाए चादर रात की | इस तरह कि बहुत हल्के से हट जाए चादर रात की | ||
− | |||
उतारकर जिसे | उतारकर जिसे | ||
− | |||
रखते तहाए | रखते तहाए | ||
− | |||
चले जाते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी | चले जाते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी | ||
− | |||
बनारस के आदमी | बनारस के आदमी | ||
− | |||
अभी धुंध हटेगी | अभी धुंध हटेगी | ||
− | |||
और राह पर आते-जातों की भरमार होगी | और राह पर आते-जातों की भरमार होगी | ||
− | |||
अभी खुलेंगे स्कूल | अभी खुलेंगे स्कूल | ||
− | |||
चलते चले जायेंगे रिक्शे | चलते चले जायेंगे रिक्शे | ||
− | |||
ढेर के ढेर बच्चों को लाद | ढेर के ढेर बच्चों को लाद | ||
− | |||
अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक | अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक | ||
− | |||
रेता-रोड़ी गिराते | रेता-रोड़ी गिराते | ||
− | |||
जिनके पहियों से उछलकर | जिनके पहियों से उछलकर | ||
− | |||
थाम ही लेगा | थाम ही लेगा | ||
− | |||
हर किसी का दामन | हर किसी का दामन | ||
− | |||
गङ्ढों में भरा गंदला पानी | गङ्ढों में भरा गंदला पानी | ||
− | |||
अभी | अभी | ||
− | |||
एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी | एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी | ||
− | |||
जो जाता होगा | जो जाता होगा | ||
− | |||
कहीं कुछ बनाने को | कहीं कुछ बनाने को | ||
− | |||
अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी | अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी | ||
− | |||
हूटर और बत्ती से सजी | हूटर और बत्ती से सजी | ||
− | |||
ललकारती सारे शहर को | ललकारती सारे शहर को | ||
− | |||
एक अजब-सी | एक अजब-सी | ||
− | |||
मदभरी अश्लील आवाज़ में | मदभरी अश्लील आवाज़ में | ||
− | |||
इन राहों पर दुनिया चलती है | इन राहों पर दुनिया चलती है | ||
− | |||
ज़रूर चलते होंगे कहीं | ज़रूर चलते होंगे कहीं | ||
− | |||
इसे बचाने वाले भी | इसे बचाने वाले भी | ||
− | |||
कुछ ही देर पहले वे उठे होंगे एक उचाट नींद से | कुछ ही देर पहले वे उठे होंगे एक उचाट नींद से | ||
− | |||
कुछ ही देर पहले उन्होंने अपने कुनमुनाते हुए बच्चों के | कुछ ही देर पहले उन्होंने अपने कुनमुनाते हुए बच्चों के | ||
− | |||
मुँह देखे होंगे | मुँह देखे होंगे | ||
− | |||
अभी उनके जीवन में प्रेम उतरा होगा | अभी उनके जीवन में प्रेम उतरा होगा | ||
− | |||
अभी वे दिन भर के कामों का ब्यौरा तैयार करेंगे | अभी वे दिन भर के कामों का ब्यौरा तैयार करेंगे | ||
− | |||
और चल देंगे | और चल देंगे | ||
− | |||
कोई नहीं जानता | कोई नहीं जानता | ||
− | |||
कि उनके कदम किस तरफ बढ़ेंगे | कि उनके कदम किस तरफ बढ़ेंगे | ||
− | |||
लौटेंगे | लौटेंगे | ||
− | |||
रोज़ ही की तरह पिटे हुए | रोज़ ही की तरह पिटे हुए | ||
− | |||
या फिर चुपके से कहीं कोई एक हिसाब | या फिर चुपके से कहीं कोई एक हिसाब | ||
− | |||
बराबर कर देंगे | बराबर कर देंगे | ||
− | |||
अभी तो उमड़ता ही जाता है | अभी तो उमड़ता ही जाता है | ||
− | |||
यह मानुष-प्रवाह | यह मानुष-प्रवाह | ||
− | |||
जिसमें अगर छुपा है हलाहल | जिसमें अगर छुपा है हलाहल | ||
− | |||
जीवन का | जीवन का | ||
− | |||
तो कहीं थोड़ा-सा अमृत भी है | तो कहीं थोड़ा-सा अमृत भी है | ||
− | |||
जिसकी एक बँद अभी उस बच्चे की ऑंखों में चमकी थी | जिसकी एक बँद अभी उस बच्चे की ऑंखों में चमकी थी | ||
− | |||
जो अपना बस्ता उतार | जो अपना बस्ता उतार | ||
− | |||
रिक्शा चलाने की नाकाम कोशिश में था | रिक्शा चलाने की नाकाम कोशिश में था | ||
− | |||
दूसरी भी थी वहीं | दूसरी भी थी वहीं | ||
− | |||
रिक्शेवाले की पनियाली ऑंखों में | रिक्शेवाले की पनियाली ऑंखों में | ||
− | |||
जो स्नेह से झिड़कता कहता था उसे - हटो बाबू साहेब | जो स्नेह से झिड़कता कहता था उसे - हटो बाबू साहेब | ||
− | |||
यह तुम्हारा काम नहीं! | यह तुम्हारा काम नहीं! | ||
− | |||
... | ... | ||
बहुत शान्त दीखते थे बी.एच.यू. के रास्ते | बहुत शान्त दीखते थे बी.एच.यू. के रास्ते | ||
− | |||
टहलते निकलते लड़के-लड़कियाँ | टहलते निकलते लड़के-लड़कियाँ | ||
− | |||
'मैत्री' के आगे खड़े | 'मैत्री' के आगे खड़े | ||
− | |||
चंदन पांडे, मयंक चतुर्वेदी, श्रीकान्त चौबे और अनिल | चंदन पांडे, मयंक चतुर्वेदी, श्रीकान्त चौबे और अनिल | ||
− | |||
मेरे इन्तज़ार में | मेरे इन्तज़ार में | ||
− | |||
उनसे गले मिलते | उनसे गले मिलते | ||
− | |||
अचानक लगा मुझे इसी गिरोह की तो तलाश थी | अचानक लगा मुझे इसी गिरोह की तो तलाश थी | ||
− | |||
अजीब-सी भंगिमाओं से लैस हिन्दी के हमलावरों के बीच | अजीब-सी भंगिमाओं से लैस हिन्दी के हमलावरों के बीच | ||
− | |||
कितना अच्छा था | कितना अच्छा था | ||
− | |||
कि इन छात्रों में से किसी की भी पढ़ाई में | कि इन छात्रों में से किसी की भी पढ़ाई में | ||
− | |||
हिन्दी शामिल नहीं थी | हिन्दी शामिल नहीं थी | ||
− | |||
ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते | ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते | ||
− | |||
वे सपनों से भरे थे और हक़ीक़त से वाकिफ़ | वे सपनों से भरे थे और हक़ीक़त से वाकिफ़ | ||
− | |||
मैं अपनी ही दस बरस पुरानी शक्ल देखता था | मैं अपनी ही दस बरस पुरानी शक्ल देखता था | ||
− | |||
उनमें | उनमें | ||
− | |||
हम लंका की सड़क पर घूमते थे | हम लंका की सड़क पर घूमते थे | ||
− | |||
यूनीवर्सल में किताबें टटोलते | यूनीवर्सल में किताबें टटोलते | ||
− | |||
आनी वाली दुनिया में अपने वजूद की सम्भावनाओं से भरे | आनी वाली दुनिया में अपने वजूद की सम्भावनाओं से भरे | ||
− | |||
हम जैसे और भी कई होंगे | हम जैसे और भी कई होंगे | ||
− | |||
जो घूमते होंगे किन्हीं दूसरी राहों पर | जो घूमते होंगे किन्हीं दूसरी राहों पर | ||
− | |||
मिलेंगे एक दिन वे भी यों ही अचानक | मिलेंगे एक दिन वे भी यों ही अचानक | ||
− | |||
वक्त के परदे से निकलकर | वक्त के परदे से निकलकर | ||
− | |||
ये, वो और हम | ये, वो और हम | ||
− | |||
सब दोस्त बनेंगे | सब दोस्त बनेंगे | ||
− | |||
अपनी दुनिया अपने हिसाब से रचेंगे | अपनी दुनिया अपने हिसाब से रचेंगे | ||
− | |||
फिलहाल तो धूल थी और धूप | फिलहाल तो धूल थी और धूप | ||
− | |||
हमारे बीच | हमारे बीच | ||
− | |||
और हम बढ़ चले थे अपनी जुदा राहों पर | और हम बढ़ चले थे अपनी जुदा राहों पर | ||
− | |||
एक ही जगह जाने को | एक ही जगह जाने को | ||
− | |||
साथ थे पिता की उम्र के वाचस्पति जी | साथ थे पिता की उम्र के वाचस्पति जी | ||
− | |||
जिन्हें मैं चाचा कहता हँ | जिन्हें मैं चाचा कहता हँ | ||
− | |||
बुरा वक्त देख चुकने के बावजूद | बुरा वक्त देख चुकने के बावजूद | ||
− | |||
उनकी ऑंखों में वही सपना बेहतर जिन्दगी का | उनकी ऑंखों में वही सपना बेहतर जिन्दगी का | ||
− | |||
और जोश | और जोश | ||
− | |||
हमसे भी ज्यादा | हमसे भी ज्यादा | ||
− | |||
साहित्य, सँस्कृति और विचार के स्वघोषित आकाओं के बरअक्स | साहित्य, सँस्कृति और विचार के स्वघोषित आकाओं के बरअक्स | ||
− | |||
उनके भीतर उमड़ता एक सच्चा संसार | उनके भीतर उमड़ता एक सच्चा संसार | ||
− | |||
जिसमें दीखते नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल और केदार | जिसमें दीखते नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल और केदार | ||
− | |||
और उनके साथ | और उनके साथ | ||
− | |||
कहीं-कहीं हमारे भी अक्स | कहीं-कहीं हमारे भी अक्स | ||
− | |||
दुविधाओं में घिरे राह तलाशते | दुविधाओं में घिरे राह तलाशते | ||
− | |||
किसी बड़े का हाथ पकड़ घर से निकलते | किसी बड़े का हाथ पकड़ घर से निकलते | ||
− | |||
और लौटते | और लौटते | ||
− | |||
... | ... | ||
हम पैदल भटकते थे - वाचस्पति जी और मैं | हम पैदल भटकते थे - वाचस्पति जी और मैं | ||
− | |||
जाना था लौहटिया | जाना था लौहटिया | ||
− | |||
जहाँ मेरे बचपन का स्कूल था | जहाँ मेरे बचपन का स्कूल था | ||
− | |||
याद आती थीं | याद आती थीं | ||
− | |||
प्रधानाध्यापिका मैडम शकुन्तला शुक्ल | प्रधानाध्यापिका मैडम शकुन्तला शुक्ल | ||
− | |||
उनका छह महीने का बच्चा | उनका छह महीने का बच्चा | ||
− | |||
रोता नींद से जागकर गुँजाता हुआ सारी कक्षाओं को | रोता नींद से जागकर गुँजाता हुआ सारी कक्षाओं को | ||
− | |||
व्योमेश | व्योमेश | ||
− | |||
जो अब युवा आलोचक और रंगकर्मी बना | जो अब युवा आलोचक और रंगकर्मी बना | ||
− | |||
एक छोटी सड़क से निकलते हुए वाचस्पति जी ने कहा - | एक छोटी सड़क से निकलते हुए वाचस्पति जी ने कहा - | ||
− | |||
यहाँ कभी प्रेमचन्द रहते थे | यहाँ कभी प्रेमचन्द रहते थे | ||
− | |||
थोड़ा आगे बड़ा गणेश | थोड़ा आगे बड़ा गणेश | ||
− | |||
गाड़ियों की आवाजाही से बजबजाती सड़क | गाड़ियों की आवाजाही से बजबजाती सड़क | ||
− | |||
धुँए और शोर से भरी | धुँए और शोर से भरी | ||
− | |||
इसी सब के बीच से मिली राह | इसी सब के बीच से मिली राह | ||
− | |||
और एक गली के आख़ीर में वही - बिलकुल वही इमारत | और एक गली के आख़ीर में वही - बिलकुल वही इमारत | ||
− | |||
स्कूल की | स्कूल की | ||
− | |||
और यह जीवन में पहली बार था | और यह जीवन में पहली बार था | ||
− | |||
जब छुट्टी की घंटी बज चुकने के बाद के सन्नाटे में | जब छुट्टी की घंटी बज चुकने के बाद के सन्नाटे में | ||
− | |||
मैं जा रहा था वहाँ | मैं जा रहा था वहाँ | ||
− | |||
वहाँ मेरे बचपन की सीट थी | वहाँ मेरे बचपन की सीट थी | ||
− | + | सत्ताइस साल बाद भी बची हुई | |
− | + | ||
− | + | ||
ज्यों की त्यों | ज्यों की त्यों | ||
− | |||
अब उस पर कोई और बैठता था | अब उस पर कोई और बैठता था | ||
− | |||
मेरे लिए | मेरे लिए | ||
− | |||
वह लकड़ी नहीं एक समूचा समय था | वह लकड़ी नहीं एक समूचा समय था | ||
− | |||
धड़कता हुआ | धड़कता हुआ | ||
− | |||
मेरी हथेलियों के नीचे | मेरी हथेलियों के नीचे | ||
− | |||
जिसमें एक बच्चे का पूरा वजूद था | जिसमें एक बच्चे का पूरा वजूद था | ||
− | |||
ब्लैकबोर्ड पर छूट गया था | ब्लैकबोर्ड पर छूट गया था | ||
− | |||
उस दिन का सबक | उस दिन का सबक | ||
− | |||
जिसके आगे इतने बरस बाद भी | जिसके आगे इतने बरस बाद भी | ||
− | |||
मैं लगभग बेबस था | मैं लगभग बेबस था | ||
− | |||
बदल गयी मेरी ज़िन्दगी | बदल गयी मेरी ज़िन्दगी | ||
− | |||
लेकिन | लेकिन | ||
− | |||
बनारस ने अब तलक कुछ भी नहीं बदला था | बनारस ने अब तलक कुछ भी नहीं बदला था | ||
− | |||
यह वहीं था | यह वहीं था | ||
− | |||
सत्ताइस बरस पहले | सत्ताइस बरस पहले | ||
− | |||
खोलता हुआ | खोलता हुआ | ||
− | |||
दुनिया को बहुत सम्भालकर | दुनिया को बहुत सम्भालकर | ||
− | |||
मेरे आगे | मेरे आगे | ||
− | |||
... | ... | ||
गाड़ी खुलने को थी - बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस | गाड़ी खुलने को थी - बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस | ||
− | |||
जाती पूरब से दूर ग्वालियर की तरफ | जाती पूरब से दूर ग्वालियर की तरफ | ||
− | |||
इससे ही जाना था मुझे | इससे ही जाना था मुझे | ||
− | |||
याद आते थे कल शाम इसी स्टेशन के पुल पर खड़े | याद आते थे कल शाम इसी स्टेशन के पुल पर खड़े | ||
− | |||
कवि ज्ञानेन्द्रपति | कवि ज्ञानेन्द्रपति | ||
− | |||
देखते अपने में गुम न जाने क्या-क्या | देखते अपने में गुम न जाने क्या-क्या | ||
− | |||
गुज़रता जाता था एक सैलाब | गुज़रता जाता था एक सैलाब | ||
− | |||
बैग-अटैची बक्सा-पेटी | बैग-अटैची बक्सा-पेटी | ||
− | |||
गठरी-गुदड़ी लिए कई-कई तरह के मुसाफिरों का | गठरी-गुदड़ी लिए कई-कई तरह के मुसाफिरों का | ||
− | |||
मेरी निगाह लौटने वालों पर थी | मेरी निगाह लौटने वालों पर थी | ||
− | |||
वे अलग ही दिखते थे | वे अलग ही दिखते थे | ||
− | |||
जाने वालों से | जाने वालों से | ||
− | |||
उनके चेहरे पर थकान से अधिक चमक नज़र आती थी | उनके चेहरे पर थकान से अधिक चमक नज़र आती थी | ||
− | |||
वे दिल्ली और पंजाब से आते थे | वे दिल्ली और पंजाब से आते थे | ||
− | |||
महीनों की कमाई लिए | महीनों की कमाई लिए | ||
− | |||
कुछ अभिजन भी | कुछ अभिजन भी | ||
− | |||
अपनी सार्वभौमिक मुद्रा से लैस | अपनी सार्वभौमिक मुद्रा से लैस | ||
− | |||
जो एक निगाह देख भर लेने से | जो एक निगाह देख भर लेने से | ||
− | |||
शक करते थे | शक करते थे | ||
− | |||
छोड़ने आए वाचस्पति जी की ऑंखों में | छोड़ने आए वाचस्पति जी की ऑंखों में | ||
− | |||
अचानक पढ़ा मैंने- विदाई! | अचानक पढ़ा मैंने- विदाई! | ||
− | |||
अब मुझे चले जाना था सीटी बजाती इसी गाड़ी में | अब मुझे चले जाना था सीटी बजाती इसी गाड़ी में | ||
− | |||
जो मेरे सामने खड़ी थी | जो मेरे सामने खड़ी थी | ||
− | |||
भारतीय रेल का सबसे प्रामाणिक संस्करण | भारतीय रेल का सबसे प्रामाणिक संस्करण | ||
− | |||
प्लेटफार्म भरा हुआ आने-जाने और उनसे भी ज्यादा | प्लेटफार्म भरा हुआ आने-जाने और उनसे भी ज्यादा | ||
− | |||
छोड़ने-लेने आनेवालों से | छोड़ने-लेने आनेवालों से | ||
− | |||
सीट दिला देने में कुशल कुली और टी.टी. भी | सीट दिला देने में कुशल कुली और टी.टी. भी | ||
− | |||
अपने-अपने सौदों में लीन | अपने-अपने सौदों में लीन | ||
− | |||
समय दोपहर का साढ़े तीन | समय दोपहर का साढ़े तीन | ||
− | |||
कहीं पहँचना भी दरअसल कहीं से छूट जाना है | कहीं पहँचना भी दरअसल कहीं से छूट जाना है | ||
− | |||
लेकिन बनारस में पहँचा फिर नहीं छूटता | लेकिन बनारस में पहँचा फिर नहीं छूटता | ||
− | |||
कहते हैं लोग | कहते हैं लोग | ||
− | |||
इस बात को याद करने का यही सबसे वाजिब समय था | इस बात को याद करने का यही सबसे वाजिब समय था | ||
− | |||
अपनी तयशुदा मध्दम रफ्तार से चल रही थी ट्रेन | अपनी तयशुदा मध्दम रफ्तार से चल रही थी ट्रेन | ||
− | |||
और पीछे बगटुट भाग रहा था बनारस | और पीछे बगटुट भाग रहा था बनारस | ||
− | |||
मुझे मालूम था | मुझे मालूम था | ||
− | |||
कुछ ही पलों में यह आगे निकल जाएगा | कुछ ही पलों में यह आगे निकल जाएगा | ||
− | |||
बार-बार मेरे सामने आएगा | बार-बार मेरे सामने आएगा | ||
− | |||
इस दुनिया में क्या किसी को मालूम है | इस दुनिया में क्या किसी को मालूम है | ||
− | |||
बनारस से निकला हुआ आदमी | बनारस से निकला हुआ आदमी | ||
− | |||
आख़िर कहाँ जाएगा? | आख़िर कहाँ जाएगा? | ||
+ | </poem> |
15:21, 22 जुलाई 2009 के समय का अवतरण
जनवरी की उफनती पूरबी धुंध
और गंगातट से अनवरत उठते उस थोड़े से धुँए के बीच
मैं आया इस शहर में
जहाँ आने का मुझे बरसो से
इन्तज़ार था
किसी भी दूसरे बड़े शहर की तरह
यहाँ भी
बहुत तेज़ भागती थी सड़कें
लेकिन रिक्शों, टैम्पू या मोटरसाइकिल-स्कूटरवालों में बवाल हो जाने पर
रह-रहकर
रूकने-थमने भी लगती थी
मुझे जाना था लंका और उससे भी आगे
सामने घाट
महेशनगर पश्चिम तक
मैं पहली बार शहर आए
किसी गँवई किसान-सा निहारता था
चीज़ों को
अलबत्ता मैंने देखे थे कई शहर
किसान भी कभी नहीं था
और रहा गँवई होना -
तो उसके बारे में खुद ही बता पाना
कतई मुमकिन नहीं
किसी भी कवि के लिए
स्टेशन छोड़ते ही यह शुरू हो जाता था
जिसे हम बनारस कहते हैं
बहुत प्राचीन-सी दिखती कुछ इमारतों के बीच
अचानक ही
निकल आती थी
रिलायंस वेब वर्ल्ड जैसी कोई अपरिचित परालौकिक दुनिया
मैंने नहीं पढ़े थे शास्त्र
लेकिन उनकी बहुश्रुत धारणा के मुताबिक
यह शहर पहले ही
परलोक की राह पर था
जिसे सुधारने न जाने कहाँ से भटकते आते थे साधू-सन्यासी
औरतें रोती-कलपती
अपना वैधव्य काटने
बाद में विदेशी भी आने लगे बेहिसाब
इस लोक के सीमान्त पर बसे
अपनी तरह के
एक अकेले
अलबेले शहर को जानने
लेकिन
मैं इसलिए नहीं आया था यहाँ
मुझे कुछ लोगों से मिलना था
देखनी थीं
कुछ जगहें भी
लेकिन मुक्ति के लिए नहीं
बँध जाने के लिए
खोजनी थीं कुछ राहें
बचपन की
बरसों की ओट में छुपी
भूली-बिसरी गलियों में कहीं
कोई दुनिया थी
जो अब तलक मेरी थी
नानूकानू बाबा की मढ़िया
और उसके तले
मंत्र से कोयल को मार गिराते एक तांत्रिक की
धुंधली-सी याद भी
रास्तो पर उठते कोलाहल से कम नहीं थी
पता नहीं क्या कहेंगे इसे
पर पहँचते ही जाना था हरिश्चंद्र घाट
मेरे काँधों पर अपनी दादी के बाद
यह दूसरी देह
वाचस्पति जी की माँ की थी
बहुत हल्की
बहुत कोमल
वह शायद भीतर का संताप था
जो पड़ता था भारी
दिल में उठती कोई मसोस
घाट पर सर्वत्र मँडराते थे डोम
शास्त्रों की दुहाई देते एक व्यक्ति से
पैसों के लिए झगड़ते हुए कहा एक काले-मलंग डोम ने-
'किसी हरिश्चंद्र के बाप का नहीं
कल्लू डोम का है ये घाट!'
उनके बालक
लम्बे और रूखे बालों वाले
जैसे पुराणों से निकलकर उड़ाते पतंग
और लपकने को उन्हें
उलाँघते चले जाते
तुरन्त की बुझी चिताओं को भी
आसमान में
धुँए और गंध के साथ
उनका यह
अलिखित उत्साह भी था
पानी बहुत मैला
लगभग मरी हुई गंगा का
उसमें भी गुड़प-गुड़प डुबकी लगाते कछुए
जिनके लिए फेंका जाता शव का
कोई एक अधजला हिस्सा
शवयात्रा के अगुआ
डॉ0 गया सिंह पर नहीं चलता था रौब
किसी भी डोम का
कीनाराम सम्प्रदाय के वे कुशल अध्येता
गालियों से नवाज़ते उन्हें
लगभग समाधिष्ठ से थे
लगातार आते अंग्रेज़
तरह-तरह के कैमरे सम्भाले
देखते हिन्दुओं के इस आख़िरी सलाम को
उनकी औरतें भी लगभग नंगी
जिन्हें इस अवस्था में अपने बीच पाकर
किशोर और युवतर डोमों की जाँघों में
रह-रहकर
एक हर्षपूर्ण खुजली-सी उठती थी
खुजाते उसे वे
अचम्भित से लुंगी में हाथ डाल
टकटकी बाँधे
मानो ऑंखो ही ऑंखों में कहते
उनसे -
हमारी मजबूरी है यह
कृपया इस कार्य-व्यापार का कोई
अनुचित
या अश्लील अर्थ न लगाएँ
गहराती शाम में आए काशीनाथ जी
शोकमग्न
घाट पर उन्हें पा घुटने छूने को लपके बी0एच0यू0 के
दो नवनियुक्त प्राध्यापक
जिन्हें अपने निकटतम भावबोध में
अगल-बगल लिए
वे एक बैंच पर विराजे
'यह शिरीष आया है रानीखेत से' - कहा वाचस्पति जी ने
पर शायद
दूर से आए किसी भी व्यक्ति से मिल पाने की
फुर्सत ही नहीं थी उनके पास
उस शाम एक बार मेरी तरफ अपनी ऑंखें चमका
वे पुन: कर्म में लीन हुए
मैं निहारने लगा गंगा के उस पार
रेती पर कंडे सुलगाए खाना पकाता था कोई
इस तरफ लगातार जल रहे शवों से
बेपरवाह
रात हम लौटे अस्सी-भदैनी से गुज़रते
और हमने पोई के यहाँ चाय पीना तय किया
लेकिन कुछ देर पहले तक
वह भी हमारे साथ घाट पर ही था
और अभी खोल नहीं पाया था
अपनी दुकान
पोई - उसी केदार का बेटा
बरसों रहा जिसका रिश्ता राजनीति और साहित्य के संसार से
सुना कई बरस पहले
गरबीली गरीबी के दौरान नामवर जी के कुर्ते की जेब में
अकसर ही
कुछ पैसे डाल दिया करता था
रात चढ़ी चली आती थी
बहुत रौशन
लेकिन बेरतरतीब-सा दीखता था लंका
सबसे ज्यादा चहल-पहल शाकाहारी भोजनालयों में थी
चौराहे पर खड़ी मूर्ति मालवीय जी की
गुज़रे बरसों की गर्द से ढँकी
उसी के पास एक ठेला
तली हुई मछली-मुर्गे-अंडे इत्यादि के सुस्वादु भार से शोभित
जहाँ लड़खड़ाते कदम बढ़ते कुछ नौजवान
ठीक सामने
विराट द्वार 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' का
...
अजीब थी आधी रात की नीरवता
घर से कुछ दूर गंगा में डुबकी लगातीं शिशुमार
मछलियाँ सोतीं
एक सावधान डूबती-उतराती नींद
तल पर पाँव टिकाए पड़ें हों शायद कछुए भी
शहर नदी की तलछट में भी कहीं साफ़ चमकता था
तब भी
हमारी पलकों के भीतर नींद से ज्यादा धुँआ था
फेफड़ों में हवा से ज्यादा
एक गंध
बहुत ज़ोर से साँस भी नहीं ले सकते थे हम
अभी इस घर से कोई गया था
अभी इस घर में उसके जाने से अधिक
उसके होने का अहसास था
रसोई में पड़े बर्तनों के बीच शायद कुलबुला रहे थे
चूहे
खाना नहीं पका था इस रात
और उनका उपवास था
...
सुबह आयी तो जैसे सब कुछ धोते हुए
क्या इसी को कहते हैं
सुबहे-बनारस ?
क्या रोज़ यह आती है ऐसे ही?
गंगा के पानी से उठती भाप
बदलती हुई घने कुहरे में
कहीं से भटकता आता आरती का स्वर
कुछ भैंसें बहुत गदराए काले शरीर वाली
धीरे से पैठ जातीं
सुबह 6 बजे के शीतल पानी में
हले!हले! करते पुकारते उन्हें उनके ग्वाले
कुछ सूअर भी गली के कीच में लोट लगाते
छोड़ते थूथन से अपनी
गजब उसाँसे
जो बिल्कुल हमारे मुँह से निकलती भाप सरीखी ही
दिखती थीं
साइकिल पर जाते बलराज पांडे
रीडर हिन्दी बी.एच.यू.
सड़क के पास अचानक ही दिखता
किसी अचरज-सा एक पेड़
बादाम का
एक बच्चा लपकता जाता लेने
कुरकुरी जलेबी
एक लौटता चाशनी से तर पौलीथीन लटकाए
अभी पान का वक्त नहीं पर
दुकान साफ कर अगरबत्ताी जलाने में लीन
झब्बर मूँछोंवाला दुकानदार भी
यह धरती पर भोर का उतरना है
इस तरह कि बहुत हल्के से हट जाए चादर रात की
उतारकर जिसे
रखते तहाए
चले जाते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी
बनारस के आदमी
अभी धुंध हटेगी
और राह पर आते-जातों की भरमार होगी
अभी खुलेंगे स्कूल
चलते चले जायेंगे रिक्शे
ढेर के ढेर बच्चों को लाद
अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक
रेता-रोड़ी गिराते
जिनके पहियों से उछलकर
थाम ही लेगा
हर किसी का दामन
गङ्ढों में भरा गंदला पानी
अभी
एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी
जो जाता होगा
कहीं कुछ बनाने को
अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी
हूटर और बत्ती से सजी
ललकारती सारे शहर को
एक अजब-सी
मदभरी अश्लील आवाज़ में
इन राहों पर दुनिया चलती है
ज़रूर चलते होंगे कहीं
इसे बचाने वाले भी
कुछ ही देर पहले वे उठे होंगे एक उचाट नींद से
कुछ ही देर पहले उन्होंने अपने कुनमुनाते हुए बच्चों के
मुँह देखे होंगे
अभी उनके जीवन में प्रेम उतरा होगा
अभी वे दिन भर के कामों का ब्यौरा तैयार करेंगे
और चल देंगे
कोई नहीं जानता
कि उनके कदम किस तरफ बढ़ेंगे
लौटेंगे
रोज़ ही की तरह पिटे हुए
या फिर चुपके से कहीं कोई एक हिसाब
बराबर कर देंगे
अभी तो उमड़ता ही जाता है
यह मानुष-प्रवाह
जिसमें अगर छुपा है हलाहल
जीवन का
तो कहीं थोड़ा-सा अमृत भी है
जिसकी एक बँद अभी उस बच्चे की ऑंखों में चमकी थी
जो अपना बस्ता उतार
रिक्शा चलाने की नाकाम कोशिश में था
दूसरी भी थी वहीं
रिक्शेवाले की पनियाली ऑंखों में
जो स्नेह से झिड़कता कहता था उसे - हटो बाबू साहेब
यह तुम्हारा काम नहीं!
...
बहुत शान्त दीखते थे बी.एच.यू. के रास्ते
टहलते निकलते लड़के-लड़कियाँ
'मैत्री' के आगे खड़े
चंदन पांडे, मयंक चतुर्वेदी, श्रीकान्त चौबे और अनिल
मेरे इन्तज़ार में
उनसे गले मिलते
अचानक लगा मुझे इसी गिरोह की तो तलाश थी
अजीब-सी भंगिमाओं से लैस हिन्दी के हमलावरों के बीच
कितना अच्छा था
कि इन छात्रों में से किसी की भी पढ़ाई में
हिन्दी शामिल नहीं थी
ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते
वे सपनों से भरे थे और हक़ीक़त से वाकिफ़
मैं अपनी ही दस बरस पुरानी शक्ल देखता था
उनमें
हम लंका की सड़क पर घूमते थे
यूनीवर्सल में किताबें टटोलते
आनी वाली दुनिया में अपने वजूद की सम्भावनाओं से भरे
हम जैसे और भी कई होंगे
जो घूमते होंगे किन्हीं दूसरी राहों पर
मिलेंगे एक दिन वे भी यों ही अचानक
वक्त के परदे से निकलकर
ये, वो और हम
सब दोस्त बनेंगे
अपनी दुनिया अपने हिसाब से रचेंगे
फिलहाल तो धूल थी और धूप
हमारे बीच
और हम बढ़ चले थे अपनी जुदा राहों पर
एक ही जगह जाने को
साथ थे पिता की उम्र के वाचस्पति जी
जिन्हें मैं चाचा कहता हँ
बुरा वक्त देख चुकने के बावजूद
उनकी ऑंखों में वही सपना बेहतर जिन्दगी का
और जोश
हमसे भी ज्यादा
साहित्य, सँस्कृति और विचार के स्वघोषित आकाओं के बरअक्स
उनके भीतर उमड़ता एक सच्चा संसार
जिसमें दीखते नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल और केदार
और उनके साथ
कहीं-कहीं हमारे भी अक्स
दुविधाओं में घिरे राह तलाशते
किसी बड़े का हाथ पकड़ घर से निकलते
और लौटते
...
हम पैदल भटकते थे - वाचस्पति जी और मैं
जाना था लौहटिया
जहाँ मेरे बचपन का स्कूल था
याद आती थीं
प्रधानाध्यापिका मैडम शकुन्तला शुक्ल
उनका छह महीने का बच्चा
रोता नींद से जागकर गुँजाता हुआ सारी कक्षाओं को
व्योमेश
जो अब युवा आलोचक और रंगकर्मी बना
एक छोटी सड़क से निकलते हुए वाचस्पति जी ने कहा -
यहाँ कभी प्रेमचन्द रहते थे
थोड़ा आगे बड़ा गणेश
गाड़ियों की आवाजाही से बजबजाती सड़क
धुँए और शोर से भरी
इसी सब के बीच से मिली राह
और एक गली के आख़ीर में वही - बिलकुल वही इमारत
स्कूल की
और यह जीवन में पहली बार था
जब छुट्टी की घंटी बज चुकने के बाद के सन्नाटे में
मैं जा रहा था वहाँ
वहाँ मेरे बचपन की सीट थी
सत्ताइस साल बाद भी बची हुई
ज्यों की त्यों
अब उस पर कोई और बैठता था
मेरे लिए
वह लकड़ी नहीं एक समूचा समय था
धड़कता हुआ
मेरी हथेलियों के नीचे
जिसमें एक बच्चे का पूरा वजूद था
ब्लैकबोर्ड पर छूट गया था
उस दिन का सबक
जिसके आगे इतने बरस बाद भी
मैं लगभग बेबस था
बदल गयी मेरी ज़िन्दगी
लेकिन
बनारस ने अब तलक कुछ भी नहीं बदला था
यह वहीं था
सत्ताइस बरस पहले
खोलता हुआ
दुनिया को बहुत सम्भालकर
मेरे आगे
...
गाड़ी खुलने को थी - बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस
जाती पूरब से दूर ग्वालियर की तरफ
इससे ही जाना था मुझे
याद आते थे कल शाम इसी स्टेशन के पुल पर खड़े
कवि ज्ञानेन्द्रपति
देखते अपने में गुम न जाने क्या-क्या
गुज़रता जाता था एक सैलाब
बैग-अटैची बक्सा-पेटी
गठरी-गुदड़ी लिए कई-कई तरह के मुसाफिरों का
मेरी निगाह लौटने वालों पर थी
वे अलग ही दिखते थे
जाने वालों से
उनके चेहरे पर थकान से अधिक चमक नज़र आती थी
वे दिल्ली और पंजाब से आते थे
महीनों की कमाई लिए
कुछ अभिजन भी
अपनी सार्वभौमिक मुद्रा से लैस
जो एक निगाह देख भर लेने से
शक करते थे
छोड़ने आए वाचस्पति जी की ऑंखों में
अचानक पढ़ा मैंने- विदाई!
अब मुझे चले जाना था सीटी बजाती इसी गाड़ी में
जो मेरे सामने खड़ी थी
भारतीय रेल का सबसे प्रामाणिक संस्करण
प्लेटफार्म भरा हुआ आने-जाने और उनसे भी ज्यादा
छोड़ने-लेने आनेवालों से
सीट दिला देने में कुशल कुली और टी.टी. भी
अपने-अपने सौदों में लीन
समय दोपहर का साढ़े तीन
कहीं पहँचना भी दरअसल कहीं से छूट जाना है
लेकिन बनारस में पहँचा फिर नहीं छूटता
कहते हैं लोग
इस बात को याद करने का यही सबसे वाजिब समय था
अपनी तयशुदा मध्दम रफ्तार से चल रही थी ट्रेन
और पीछे बगटुट भाग रहा था बनारस
मुझे मालूम था
कुछ ही पलों में यह आगे निकल जाएगा
बार-बार मेरे सामने आएगा
इस दुनिया में क्या किसी को मालूम है
बनारस से निकला हुआ आदमी
आख़िर कहाँ जाएगा?