"चुनिंदा शे’र / असग़र गोण्डवी" के अवतरणों में अंतर
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+ | इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा | ||
यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा। | यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा। | ||
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दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे। | दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे। | ||
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पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥ | पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥ | ||
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नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ। | नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ। | ||
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हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥ | हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥ | ||
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क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल। | क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल। | ||
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उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥ | उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥ | ||
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अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है। | अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है। | ||
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मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥ | मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥ | ||
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मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग। | मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग। | ||
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मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥ | मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥ | ||
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खिलते ही बाग में पज़मुर्दा<ref>कुम्हलाने लगे</ref> हो चले। | खिलते ही बाग में पज़मुर्दा<ref>कुम्हलाने लगे</ref> हो चले। | ||
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जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥ | जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥ | ||
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बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़। | बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़। | ||
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हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥ | हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥ | ||
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जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की। | जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की। | ||
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23:25, 24 जुलाई 2009 के समय का अवतरण
इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा
यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा।
दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥
नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ।
हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥
क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल।
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥
अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है।
मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥
मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥
खिलते ही बाग में पज़मुर्दा<ref>कुम्हलाने लगे</ref> हो चले।
जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥
बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़।
हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥
जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की।
उनसे बढ़कर कौन होगा, नुक्तादाने-इज़्तराब<ref>बेचैनी को समझनेवाला</ref>॥
नासेह मुश्फ़िक़!<ref>हितैशी उपदेशक</ref> मगर यूँ ही तड़पने दे मुझे।
मुझ को भी मालूम है, सूदो-ज़ियाने-इज़्तराब<ref>बेचैनी का हानी-लाभ</ref>॥