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"अब अजब एहसास की परवाज़ में हैं पर लगे / प्रेम भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर
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प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: <poem> अब अजब अहसास की परवाज़ में हैं पर लगे घर लगे होटल नुमाँ अर्धांग...) |
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23:28, 30 जुलाई 2009 का अवतरण
अब अजब अहसास की परवाज़ में हैं पर लगे
घर लगे होटल नुमाँ अर्धांगिनी वेटर लगे
अब भुलावा नींद को देते हैं टीवी सीरियल
और दादी की कथा तो बेतुकी टरटर लगे
बाग कमरे में बने जो प्लास्टिक के फूल हों
फिक्र भंवरों का कहाँ क्या तितलियों का डर लगे।
चारागर की बेकसी से अब है डर लगने लगा
रोगियों के साथ ही उसका कहीं बिस्तर लगे
जब कभी लैला का आँचल सुर्ख परचम हो गया
जागरण के नाम पर मजनूं को है पत्थर लगे
राह बतियाती नहीं संवाद भी संभव नहीं
रहनुमाई में तुम्हारी भी सफर बदतर लगे
अब से घर चूने लगे तो कर यकीं बरसात में
रतजगे करना ही सारे गाँव को बेहतर लगे
विश्व में अलगाव की दीवार गर ये ढह सके
तो धरा महबूब सी और प्रेम सा अम्बर लगे