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"जब से मन की बगिया में इक आस उगी है / प्रेम भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर
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जब से मन की बगिया में इस आस उगी है | जब से मन की बगिया में इस आस उगी है |
06:55, 5 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
जब से मन की बगिया में इस आस उगी है
फिर से ओलों की आहट भी होने लगी है
सुबह का सूरज भी यूँ ही नहीं निकला है
इसकी चाहत में खुद सारी रात जगी है
मंज़िल पास आते ही फिर सामान लुटा है
गोया मौत भी नाम विधि के एक ठगी है
रेज़ा फिर बिखरा इंसान हवा में
ऊँचे मचानो से जब कोई तोप दगी है
मौत की मंज़िल तक आने के पूरे सफर में
जाने कितने जन्मों की सौगात लगी है
काँटों का यह डर कैसा है प्रेम के पथ में
यह मस्ती तो संत्रासों की बहिन सगी है