भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे / प्रेम भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: <poem> कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे अब आँख भी नहीं झुकती उसे जलाने ...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=प्रेम भारद्वाज
 +
|संग्रह= मौसम मौसम / प्रेम भारद्वाज
 +
}}
 +
[[Category:ग़ज़ल]]
 
<poem>
 
<poem>
 
कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे
 
कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे

07:26, 5 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

कभी तो नीर था बहता बहू भिजाने पे
अब आँख भी नहीं झुकती उसे जलाने पे

मिला के आँख कभी बात करके देख ज़रा
डराएगा जो डरोगे डरे डराने पे

उतरते देख कि अब पूछता है कौन तुझे
हुए थे खुश वो तुम्हें पेड़ पर चढ़ाने पे

अचार डाल के लोगों ने भर लिए डिब्बे
डटे हैं आज भी हम आम ही गिराने पे

लगे हैं बोलने रोटी को रोटी अब बच्चे
ठगे ही जाओ न खुद ही इन्हें ठगाने पे

निकटता जजबसे बढ़ी प्रेम ख़त्म है तब से
मिटे हैं वहम कई पास उनके जाने पे