भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अपने अपने डेरे / दिविक रमेश" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश }} हैरान थी हिन्दी। उतनी ही सकुचाई लज...)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=दिविक रमेश
 
|रचनाकार=दिविक रमेश
 
}}
 
}}
 +
<poem>
 
हैरान थी हिन्दी।
 
हैरान थी हिन्दी।
  

19:53, 5 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

हैरान थी हिन्दी।

उतनी ही सकुचाई
लजायी
सहमी सहमी सी
खड़ी थी
साहब के कमरे के बाहर
इज़ाजत माँगती
माँगती दुआ
पी.ए. साहब की
तनिक निगाहों की।

हैरान थी हिन्दी
आज भी आना पड़ा था उसे
लटक कर
खचाखच भरी
सरकारी बस के पायदान पर
सम्भाल सम्भाल कर
अपनी इज्जत का आँचल

हैरान थी हिन्दी
आज भी नहीं जा रहा था
किसी का ध्यान
उसकी जींस पर
चश्मे
और नए पर्स पर

मैंने पूछा
यह क्या माजरा है हिन्दी
अच्छा भला पहनावा छोड़कर
यह क्या रूप धर लिया -
और जींस पर्स पर यह आँचल!

बोली
और वह भी
होकर रूआँसी
बस पूछिए मत भाई
आ गई
दिल्ली के एक प्रोफेसर के चक्कर में
बोला था
कि अगर चाहती हो
लोगों की निगाह में आना
तो उतार फेंको
यह पारंपरिक
वेशभूषा
क्या फंसी रहती हो
आज भी उसी संस्कृत और कभी
अपनी माँ-दादी की वेशभूषा के चक्कर में
वह भी इस कम्प्यूटरी और
इलैक्ट्रार ज़माने में।
छोड़ो यह व्याकरण फ्याकरण
छोड़ो यह शुद्धता वुद्धता
यह गलत सही का चक्कर
और मुक्त हो जाओ
और अपनी वेशभूषा से
अच्छे अच्छे संयमियों तक को ललचाओ
ज़रा आधुनिक बनो
झूठे ही सही
चर्चा में आने को
दो चार बूढ़े दकियानूसी नामवरों पर
हैरस्मेंट का चार्ज लगाओ।

और देखो
मेरी भी मति मारी थी
वैसा ही कर बैठी
अब न रही घर की
और न ही घाट की।

बोला मैं
पर हिन्दी
तुम तो कभी ऐसी न थी
क्या तुम्हें सच में नहीं थी समझ
कि कैसे
करने को अपना अपना उल्लू सीधा
चला रहे थे मक्कार
गोलियाँ
रखे अपनी बन्दूक
तुम्हारे कंधे पर।

हाँ, सच में कहाँ समझ पाई थी
सोचा था
इंग्लैंड
और फिर अमरीका से लौट कर
साहिब बन जाऊँगी
और अपने देश के
हर साहब से
आँखें मिला पाऊँगी।


क्या मालूम था
अमरीका रिटर्न होकर भी
बसों
और साहब के द्वार पर
बस धक्के ही खाऊँगी।

मैं हँसा
कुछ ऐसे
जैसे कि रो रहा हूँ
या शायद किसी शोक सभा में बैठा
जैसे कि दिलासा दे रहा हूँ

हिन्दी !
अब जाने भी दो
छोड़ो भी गम
इतनी बार बन कर उल्लू अब तो समझो
कि तुम जिनकी हो
उनकी तो रहोगी ही न
उनके मान से ही
क्यों नहीं कर लेती सब्र
यह क्या कम है
कि तुम्हारी बदौलत
कितनों ने ही
कर ली होगी सैर
इंग्लैंड और अमरीका तक की।

देखा
अब कुछ उभर रही थी हिन्दी
यानी सम्भल रही थी।
पेंट शर्ट पहने भी
जो अपना आंचल नहीं भूली थी
आंखों की कोर
उसी से साफ़ कर बोली थी -
'अरे, हाँ, याद आया
हाल ही में मेरे साथ
न जाने कौन कौन गया था मुफ्त में
न्यूयार्क नगरी
(सच जानों, कइयों को तो जानती तक नहीं थी
और कई जानकार
जाने क्यों मना कर गए
मुफ्त का टिकिट पाकर भी!)

और आप भी तो नहीं दिखे?

पहाड़ सा टूट पड़ा
यह प्रश्न
मेरी हीन भावना पर।

जिससे बचना चाहता था
वही हुआ।
संकट में था
कैसे बताता
कि न्यूयार्क क्या
मैं तो नागपुर तक नहीं बुलाया गया था

कैसे बताता
न्यौता तो क्या
मेरे नाम पर तो
सूची से पहले भी ज़िक्र तक नहीं होता

कैसे बताता
कि उबरने को अपनी झेंप से
अपनी इज्जत को
'नहीं मैं नहीं जा सका` की झूठी ठेगली से
ढ़कता आ रहा हूँ।

अच्छा है
शायद समझ लिया है
मेरी अन्तरात्मा की झेंप को
हिन्दी ने।
आखिर उसकी
झेंप के सामने
मेरी झेंप तो
तिनका भी नहीं थी

बोली -
भाई,
समझते हो न मेरी पीर

हाँ बहिन!
यूं ही थोड़े कहा है किसी ने
जा के पाँव न फटी बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई

और लौट चले थे
हम भाई बहिन
बिना और अफसोस किए
अपने अपने
डेरे।