भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आ गयी किस घाट पर यह नाव दिन ढलते हुए! / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: आ गयी किस घाट पर यह नाव दिन ढलते हुए! धार के साथी सभी मुँह फेर कर चल...)
(कोई अंतर नहीं)

22:26, 5 अगस्त 2009 का अवतरण

आ गयी किस घाट पर यह नाव दिन ढलते हुए!

धार के साथी सभी मुँह फेर कर चलते हुए


तेरी आँखों से तेरे दिल का था कितना फासला

पर यहाँ एक उम्र पूरी हो गयी चलते हुए


हमने रख दी है छिपाकर इनमें दिल की आग भी

गुल नहीं होंगे कभी अब ये दिये जलते हुए


लाख दस्तक दें हवायें आके इस डाली पे आज

फूल जागेंगे नहीं आँखें मगर मलते हुए


तुझसे मिलने का किया वादा तो है उसने, गुलाब!

टल न जाए वह सदा को, दिन-ब-दिन टलते हुए