"आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
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− | आशना हैं तेरे क़दमों से | + | आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर |
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है | उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है | ||
− | + | कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के | |
− | जिसकी इन | + | जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है |
− | तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ | + | तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें |
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है | उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है | ||
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ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने | ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने | ||
− | तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर | + | तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें |
− | तुझको मालूम है क्यों उम्र | + | तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने |
− | हम पे मुश्तरका हैं | + | हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के |
− | इतने एह्सान कि गिनवाऊं तो गिनवा न | + | इतने एह्सान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ |
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है | हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है | ||
− | जुज़ तेरे और को | + | जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ |
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी | आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी | ||
− | यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के | + | यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे |
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा | ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा | ||
पंक्ति 58: | पंक्ति 58: | ||
− | जब कहीं बैठ के रोते हैं | + | जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके |
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं | अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं | ||
पंक्ति 69: | पंक्ति 69: | ||
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त | जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त | ||
− | शाहराहों पे ग़रीबों का लहू | + | शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है |
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ | आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ | ||
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है | अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है |
06:39, 10 अगस्त 2009 का अवतरण
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रखा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफ़साना बना रखा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे इसी र’अनाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है
तुझ से खेली हैं वह महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई-खोई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने
हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एह्सान कि गिनवाऊं तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिर्मां के दुख-दर्द के म’आनी सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
सर्द आहों के, रुख़े ज़र्द के म’आनी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आंखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मंडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
आग-सी सीने में रह-रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है