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वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
देखना मुखको मुझको जो बरगशता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
बावजूदे-इद्दआएइद्दआ-ए-इत्तिक़ा<ref>पवित्रता की कस्मों के बावजूद</ref> ‘हसरत’ मुझेआज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है
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