भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आत्मचित्र-1 / नंदकिशोर आचार्य" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंदकिशोर आचार्य |संग्रह=कवि का कोई घर नहीं होता ...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
:::तुम्हारे लिए | :::तुम्हारे लिए | ||
देख लो तुम जिससे | देख लो तुम जिससे | ||
− | अपने को कैसे | + | अपने को कैसे देखता हूँ मैं। |
सब से पहले आँखें | सब से पहले आँखें |
13:23, 16 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
एक आत्मचित्र बनाना है मुझे
तुम्हारे लिए
देख लो तुम जिससे
अपने को कैसे देखता हूँ मैं।
सब से पहले आँखें
-आत्मचित्र, सच पूछो तो, आँखें ही होता है-
जिनसे दुनिया यह
मेरे चित्रों की हो जाती है
पर आँखें बनाऊँ कैसे?
खुली बनाऊंगा
तुम्हारा बिम्ब उनमें उभर आता है
-हर शै में तुम्हीं को खोजती हैं वे
बेहतर है आँखें मुंदी ही रखना
जो न कुछ भी देख पाएंगी
न उनमें ही दिखेगा कुछ।
स्वीकार होगा क्या तुम्हें
वह आत्मचित्र मेरा-
आँखें मेरी मुंद गई हों जिसमें
देखते-देखते तुम को।